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________________ १४८ जीवाजीवाभिगम सूत्र ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• _ कठिन शब्दार्थ - चाउद्दसट्ठमुट्ठिपुण्णिमासिणीसु - चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा और अमावस्या में, अतिरेगं - अतिरेक-अतिशय, महालिंजरसंठाणसंठिया - महाकुंभ के आकार का, महापायाला - महापाताल कलश, कुड्डा - कुड्य (भित्तियां)। भावार्थ - हे भगवन्! लवण समुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा और अमावस्या की तिथियों में अतिशय बढ़ता है. और घटता है, इसका क्या कारण है? हे गौतम! जंबूद्वीप नामक द्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिका के अंत से लवण समुद्र में पिच्यानवें हजार योजन आगे जाने पर महाकुंभ के आकार के चार विशाल महापाताल कलश कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - वड़वामुख, केयूप, यूप और ईश्वर। ये पाताल कलश एक लाख योजन गहरे हैं मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है, वहां से एक-एक प्रदेश की एक-एक श्रेणी से वृद्धिंगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन के चौड़े हो गये हैं। फिर एक-एक प्रदेश श्रेणी से हीन होते होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं। इन पाताल कलशों के भित्तियां सर्वत्र समान हैं। ये सब एक हजार योजन की मोटी हैं। ये सर्ववज्ररत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। इन कुड्यों (भित्तियों) में बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं तथा बहुत से पुद्गल एकत्रित होते हैं और बिखरते हैं वहां पुद्गलों का चय-उपचय होता रहता है। वे कुड्य (भित्तियां) द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों से अशाश्वत हैं। उन पाताल कलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महर्द्धिक देव रहते हैं, वे इस प्रकार हैं - काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन। तेसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तंजहा-हेट्ठिल्ले तिभागे मझिल्ले तिभागे उवरिमे तिभागे॥ ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिण्णि य तेत्तीसं जोयणसयं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठइ, तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिट्ठइ, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिट्ठइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ २ देसे.....बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुड्डपायालकलसा पण्णत्ता, ते णं खुड्डा पायाला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं माझे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पिं मुहमूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं॥ तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता, सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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