SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - लवण समुद्र में जल हानि वृद्धि का कारण १४७ .00000000000000000000000000000000000000000000000000000000••••••• बारसुत्तरं णक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा ३ तिण्णि वावण्णा महग्गहसया चारं चरिसु वा ३ दुण्णि सयसहस्सा सत्तटुिं च सहस्सा णव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३॥१५५॥ भावार्थ - हे भगवन्! लवण समुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे? इस प्रकार पांचों ज्योतिषियों के विषय में प्रश्न समझने चाहिये? हे गौतम लवण समद्र में चार चन्द्रमा उद्योत करते थे. करते हैं और करेंगे। चार सर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। एक सौ बारह नक्षत्र चन्द्र से योग करते थे, करते हैं और करेंगे। तीन सौ बावन महाग्रह चाल चलते थे, चाल चलते हैं और चाल चलेंगे। दो लाख सडसठ हजार नौ सौ कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। विवेचन - यहां पर जो लवण समुद्र में चार चन्द्र सूर्य आदि का उल्लेख किया गया है उनमें से दो चन्द्रमा व दो सूर्य तथा उनके परिवार भूत ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि लवण समुद्र की उदगशिखा के अन्दर तथा इतने ही चन्द्रमा आदि उदग शिखा से बाहर समझना चाहिए। लवण समुद्र में जल हानि वृद्धि का कारण कम्हा णं भंते। लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णिमासिणीसु अइरेगं अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा? ___गोयमा! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसिं बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुदं पंचाणउइ पंचाणउड़ जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला पण्णत्ता, तंजहा-वलयामुहे केऊए जूवे ईसरे, ते णं महापायाला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं मज्झे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसयसहस्सं विक्खंभेणं उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं॥ तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसयबाहल्ला पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमंति विउक्कमंति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दव्वट्ठयाए वण्णपजवेहि० असासया॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठिइया परिवसंति, तंजहा-काले महाकाले वेलंबे पभंजणे॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy