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________________ १४६ जीवाजीवाभिगम सूत्र •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• हे गौतम! लवण समुद्र का पानी अस्वच्छ है, रजवाला है, नमकीन है, गोबर जैसे स्वाद वाला है, खारा है, कडुआ है द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृपों के लिए वह अपेय-पीने योग्य नहीं है केवल लवण समुद्र योनिक जीवों के लिए ही वह पेय है। लवण समुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महर्द्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है। वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवण समुद्र की सुस्थिता राजधानी का तथा अन्य बहुत से देव देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। इस कारण हे गौतम! लवण समुद्र, लवण समुद्र कहलाता है। दूसरी बात यह है कि हे गौतम! "लवण समुद्र" यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। विवेचन - टीकाकारों ने लवण समुद्र के भी जगती का कथन किया है। परंतु आगमकारों को यदि लवणादि द्वीप समुद्रों के जगती बताना इष्ट होता तो स्पष्ट रूप से जंबू जगती का अतिदेश कर देते जिससे पाठ वृद्धि भी नहीं होती। किंतु ऐसा न करके मात्र वेदिका का ही वर्णन है। अत: सिद्ध होता है कि अनादिकालीन लोकस्थिति ऐसी ही होने से लवणादि के जगती नहीं है। तथा नागराज आदि के द्वारा क्षुभित लवणोदक जंबू में नहीं आता तथा धातकीखंड अति विस्तृत होने से जगती का प्रयोजन ही नहीं है। द्वार - अन्य द्वीप समुद्रों की दो योजन ऊंची वेदिका में ८ योजन ऊंचे द्वार छोटी भित्तियों में बड़े दरवाजे के समान समझना चाहिये। शंका - द्वीप समुद्रों की वेदिका ५०० धनुष चौड़ी है फिर भौम प्रासाद आदि कैसे रहेंगे? समाधान - लवण के पूर्वादि चारों दिशाओं में जहां भौम प्रासाद आदि हैं, वहां लगभग ८ योजन तक भराव समझना चाहिये। (दो योजन में वेदिका वनखंड, चार योजन में भौम, दो योजन में प्रासाद-८ योजन) जहाँ भौम प्रासाद नहीं है। वहां वेदिका वनखंड तो है ही। अतः सर्वत्र दो योजन ठोस भूमि का भराव है। शंका - लवण समुद्र के यदि ८ योजन भूमि का भराव माना जाय तो "९५ अंगुल जाने पर १ अंगुल ऊंडाई होती है" इस कथन की संगति कैसे होगी? ...... समाधान - जैसे वनमुख का १ कला जितना भाग जगती के नीचे होने से वृक्षादि नहीं होते हुए भी उसकी क्षेत्र सीमा मान ली जाती है। वैसे ही ८ योजन तक भूमि का भराव होते हुए भी उसकी क्षेत्र सीमा मान लेना चाहिये। फिर ८ योजन में जितनी ऊँडाई होनी चाहिये उतनी एक साथ हो जायेगी। लवण समुद्र में चन्द्र आदि लवणे णं भंते! समुद्दे कइ चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा? एवं पंचण्हवि पुच्छा। गोयमा! लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३, चत्तारि सूरिया तविंसु वा ३, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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