SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - जम्बूद्वीप में चन्द्र आदि की संख्या १४१ स्थान पर जंबू वृक्ष, जम्बूवन (एक जाति के वृक्षों का समुदाय) और जंबू वनखंड (अनेक जाति के वृक्षों का समुदाय) हैं इसलिये भी जंबूद्वीप कहलाता है ३. जम्बू नाम शाश्वत होने से भी जंबूद्वीप कहलाता है। जंबूद्वीप का अधिपति अनादृत देव बताया गया है। इसका अर्थ टीका में इस प्रकार किया है - "अनादर क्रिया विषयीकृता शेषा जंबूद्वीपगता येनात्मनोऽत्युद्भूतम् महर्द्धिकत्व मीक्षमाणेन सो अनादृतः" अर्थ -- जिसमें अपने वैभव से जंबूद्वीप के सभी देवों को अनादृत (हीन-तिरस्कृत) कर दिया है। उसे अनादृत देव कहते हैं। इसका क्षेत्र संपूर्ण जंबूद्वीप है, शेष देवों का जंबूद्वीप का कुछ-कुछ सीमित क्षेत्र ही है। राजधानियां तो अन्य देवों की बड़ी हो जाने में भी बाधा नहीं है। जंबूद्वीप में चन्द्र आदि की संख्या जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कइ चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा? कइ सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा? कइ णक्खत्ता जोयं जोइंसु वा जोयंति वा जोएस्संति वा? कइ महग्गहा चारं चरिंसु वा चरिति वा चरिस्संति वा? केवइयाओ तारागणकोडाकोडीओ सोहिंसु वा सोहंति वा सोहेस्संति वा? गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा दो सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा छावत्तरं गहसयं चारं चरिंसु वा चरिंति वा चरिस्संति वा। एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइं। णव य सया पण्णासा तारागणकोडाकोडीणं॥१॥ सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा॥१५३॥ भावार्थ - हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामक द्वीप में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे? कितने नक्षत्र चंद्रमा के साथ योग करते थे, करते हैं और करेंगे? कितने महाग्रह आकाश में चलते थे, चलते हैं और चलेंगे? कितने कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे? - हे गौतम! जंबूद्वीप में दो चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे। दो सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। छप्पन नक्षत्र चन्द्रमा से योग करते थे, करते हैं और करेंगे। एक सौ छियोत्तर महाग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy