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________________ १४० जीवाजीवाभिगम सूत्र स १०. विशाला - आठ योजन प्रमाण विशाल-विस्तृत होने से विशाला है। ११. सुजाता - जन्मदोष रहिता-विशुद्ध मणि, कनक, रत्न आदि से निर्मित होने से सुजाता है। १२. सुमना - जिसके कारण से मन शोभन-अच्छा होता है अतः सुमना है। टीका में इन बारह पर्यायवाची नामों के क्रम में अंतर है। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-जंबूसुदंसणा जंबूसुदंसणा? गोयमा! जंबूए णं सुदंसणाए जंबूदीवाहिवई अणाढिए णामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव जंबूदीवस्स जंबूए सुदंसणाए अणाढियाए य रायहाणीए जाव विहरंति। कहिणं भंते! अणाढियस्स जाव समत्ता वत्तव्वया रायहाणीए महिड्डिए। अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे तंत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया जाव सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे जंबुद्दीवे, अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबुद्दीवस्स सासए णामधेज पण्णत्ते, जण्ण कयावि णासि जाव णिच्चे॥१५२॥ भावार्थ - हे भगवन् ! जंबू-सुदर्शना को जंबू-सुदर्शना क्यों कहा जाता है? ____ हे गौतम! जंबू-सुदर्शना में जंबूद्वीप का अधिपति अनादृत नाम का महर्द्धिक देव रहता है यावत् उसकी एक पल्योपम की स्थिति है। वह चार हजार सामानिक देवों यावत् जंबूद्वीप की जंबू सुदर्शना का और अनादृता राजधानी का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! अनादृत देव की अनादृता राजधानी कहां है ? हे गौतम! विजया राजधानी की तरह ही यहां सारी वक्तव्यता कह देनी चाहिये यावत् वहां अनादृत नामक महर्द्धिक देव रहता है। - हे गौतम! दूसरा कारण यह है कि जंबूद्वीप नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां जंबूवृक्ष, जंबूवन और जंबू वनखंड हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं यावत् अतीव-अतीव शोभा से शोभायमान है। इसलिये हे गौतम! जंबूद्वीप, जंबूद्वीप कहलाता है। अथवा हे गौतम! जंबूद्वीप यह शाश्वत नाम है। यह पहले नहीं था-ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं और भविष्य में नहीं होगा ऐसा भी नहीं, यावत् यह नित्य है। भावार्थ - प्रस्तुत सूत्र में जंबूद्वीप को जंबूद्वीप क्यों कहा जाता है इसके जो कारण बताये हैं वे इस प्रकार हैं - १. जंबू वृक्ष से उपलक्षित होने के कारण यह जंबूद्वीप कहलाता है २. जंबूद्वीप में स्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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