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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक गोपुरों में- प्राकार के द्वारों में, बिलपंतियासु - सरोवरों की पंक्तियों में, आरामेसु - आरामों - लतागृहों में, काणणेसु - काननों नगर के समीप के वनों में, वणसंडेसु - वनखण्डों- अनेक जाति के वृक्ष समूहों में, वणराईसु - वनराजियों- एकजातीय उत्तमवृक्ष समूहों में । भावार्थ - तब वह विजयदेव अपने चार हजार सामानिक देवों आदि अपने समस्त परिवार के साथ यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि की बीच सुधर्मा सभा की ओर जाता है और उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता | प्रवेश करके जिन सक्थाओं को देखते ही प्रणाम करता है और जहाँ मणिपीठिका है जहाँ माणवक चैत्य स्तंभ है और जहाँ वज्ररत्नं की गोल वर्तुल मंजूषाएं हैं वहाँ आता है और लोमहस्तक से उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन कर उनको खोलता है । उनमें रखी हुई जिन सक्थाओं का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगंधित गंधोदक से इक्कीस बार उनको धाता है, सरस गोशीर्ष चंदन का लेप करता है, प्रधान और श्रेष्ठ गंधों और मालाओं से पूजन करता है, धूप देता है । तदनन्तर उनको उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं में रख देता है तत्पश्चात् माणवक चैत्य स्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदक धारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चंदन का लेप करता है, फूल चढाता है यावत् लम्बी लटकती हुई फूलमालाएं रखता है, कचग्राहगृहीत करतल से विमुक्त बिखरे हुए पांच वर्णों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है । इसके बाद सुधर्मा सभा के मध्य भाग में जहाँ सिंहासन है वहाँ आकर सिंहासन आदि का प्रमार्जन कर पूर्वोक्त रीति से अर्चन करता है । तत्पश्चात् जहाँ मणिपीठिका और देवशयनीय है वहाँ आता है आकर पूर्ववत् पूजा करता है। इसी प्रकार क्षुल्लक महेन्द्रध्वज की पूजा करता है। इसके बाद जहाँ चौपालक नामक प्रहरण कोष- शस्त्रागार है वहाँ आता है आकर शस्त्रों का लोम हस्तक से प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन कर, चंदन का लेप लगा कर पुष्प आदि चढा कर धूप देता है । इसके पश्चात् सुधर्मा सभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है फिर दक्षिण द्वार से निकलता है। इसके आगे सारा वर्णन सिद्धायतन के समान समझना चाहिए यावत् पूर्व दिशा की नंदापुष्करिणी की अर्चना करता है। सभी सभाओं का पूजा का वर्णन सुधर्मा सभा की तरह समझ लेना चाहिए। अंतर यह है कि उपपात सभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करना चाहिए शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना चाहिये । ह्रद ( सरोवर) की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह कह देना चाहिए। व्यवसाय सभा में पुस्तक रत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, दिव्य उदकधारा से सिंचन, सरस गोशीर्ष चंदन से लेप, प्रधान एवं श्रेष्ठ गंधों और माल्यों से अर्चन करता है। तब सिंहासन का प्रमार्जन यावत् धूप देता है। शेष सारा वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिए। हद का कथन नंदापुष्करिणी की तरह कह देना चाहिये। तत्पश्चात् जहाँ बलिपीठ है वहाँ जाता है और वहाँ अर्चन आदि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि हे देवानुप्रियो ! विजया राजधानी के श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, Jain Education International For Personal & Private Use Only ११३ www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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