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जीवाजीवाभिगम सूत्र
चत्वरों, चतुर्मुखों, महापथों, सामान्य पथों, प्रासादों, प्राकारों, अट्टालिकाओं, चर्याओं, द्वारों, गोपुरों, तोरणों, बावडियों, पुष्करिणियों यावत् सरोवरों की पंक्तियों, आऱामों, उद्यानों, काननों, वनों, वनखण्डों और वनराजियों में पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्न कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो अर्थात् कार्य समाप्ति की सूचना दो।
तब वे आभियोगिक देव विजयदेव द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट तुष्ट हुए और उसकी आज्ञा को स्वीकार कर विजया राजधानी के श्रृंगाटकों यावत् वनखण्डों में पूजा-अर्चना करके विजयदेव के पास आकर कार्य संपन्न करने की सूचना देते हैं ।
तणं से विज देवे तेसिं णं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिय जाव हयहियए जेणेव णंदा पुक्खारिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पुरत्थिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेइ पक्खालित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभू णंदापुक्खरिणीओ पच्चुत्तरड़ पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
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तए णं से विजए देवे चउहिं सामाणिय- साहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सव्विड्डीए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सभं सुहम्मं पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ २ त्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसणे ॥ १४२ ॥
भावार्थ - तब वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुन कर हृष्ट तुष्ट हुआ, आनंदित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ। तत्पश्चात् वह नंदापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ पांव धोकर, आचमन करके, स्वच्छ और परम शूचिभूत होकर नंदा पुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मा सभा की ओर जाने की इच्छा (संकल्प) करता है ।
तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सोलह हजार आत्म रक्षक देवों के साथ सर्व ऋद्धि पूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मा सभा की ओर आता है, सुधर्मा सभा के पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है तथा जहां मणिपीठिका है वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है ।
तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पत्तेयं २ पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरत्थिमेणं पत्तेयं २ पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति ।
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