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________________ १०८ जीवाजीवाभिगम सूत्र उपलब्ध होती है। जिनसे ही उन्होंने ज्ञाता सूत्र में 'णमोत्थुणं' के बिना के पाठ को प्रधानता दी है। इससे ७-८ वीं शती में लिखित प्राचीन प्रतियों से इस पाठ को मिलाने से इसकी प्रक्षिप्तता जानी जा सकती है। अन्य सांदर्भिक पाठों और ज्ञाता सूत्र के पाठ के आधार से उसे प्रक्षिप्त कहा जाता है। पूर्ण निश्चितता के लिए प्राचीन प्रतियों के पाठ को मिलाने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि प्राचीन प्रतियों में. भी 'णमोत्थुणं' का पाठ मिल जाय तो समकिती, मिथ्यात्वी सभी के लिए करणीय होने से ‘णमोत्थुणं' भी मंगल रूप ही सिद्ध होगा, धार्मिक कृत्य नहीं। रायप्पसेणइय और जीवाभिगम के टीकाकार श्री मलयगिरिजी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव जी के पश्चाद्वर्ती है। इनको प्रक्षिप्त पाठ वाली प्रतियाँ उपलब्ध होने की संभावना है। जिससे इन्होंने अपनी टीका में 'णमोत्थुणं' के पाठ की भी टीका की है। परन्तु इसकी संगति के विषय में मौन है। इसी तरह इस संबंध में लोकाशाह मत समर्थन, जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा, स्थानकवासी धर्म की सत्यता (लेखक - श्री रतनलालजी डोशी), दंडी दंभ दर्पण (माधवाचार्य) आदि पुस्तकें द्रष्टव्य है। जिनमें अनेक प्रामाणिक आधारों के साथ स्पष्ट रूप से मूर्तिपूजा को जिनागम विरुद्ध सिद्ध किया है। इत्यादि प्रमाणों के आधार से मूर्ति पूजा की जिनागम विरुद्धता और 'णमोत्थुणं' के पाठ की प्रक्षिप्तता के संबंध में ऊहापोह कर के वास्तविक तथ्य जाना जा सकता है। वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खइ २ त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहइ २ त्ता चच्चए दलयइ चच्चए दलयित्ता कयग्गाहग्गहिय करतलपब्भट्ठविमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं करेइ २ त्ता धूवं दलयइ २ त्ता जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता लोमहत्थगं गेण्हइ २ त्ता दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरुवए य लोमहत्थएणं पमजइ २ त्ता बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपइ २ त्ता चच्चए दलयइ २ त्ता पुष्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ २ आसत्तोसत्तविउल वट्टवग्घारिय-मल्लदामकलावं करेइ २ त्ता कयग्गाहग्गहिय जाव पुंजोवयारकलियं करेइ २ त्ता धूवं दलयइ २ त्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमझदेसभाए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्थेणं पमज्जइ २ त्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ २ त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहइ २ त्ता चच्चए दलयइ २ ता कयग्गाह० जाव धूवं दलयइ २ त्ता जेणेव मुहमंडवस्स पच्चथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ २ दारचेडीओ य सालभंजियाओ य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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