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तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
बोलते हैं तब तो सभी जीवों के लिए मंगल और जीताचार कृत्य होने से चक्रार्चन के जैसे मंगल कृत्य ही सिद्ध होता है। इसलिए यहां पूर्वापर संदर्भ की संगति से अधिक संभव तो यही है कि यहाँ 'णमोत्थुणं' का पाठ प्रक्षिप्त है। क्योंकि यदि मंगल कृत्य रूप से णमोत्थुणं' का पाठ बोलने की प्रथा होती तो भरतादि चक्रवर्ती भी चक्रार्चन के समय में बोलते, परन्तु वे यह पाठ नहीं बोलते हैं। इससे प्रतिमार्चन के स्थान का पाठ भी चक्रार्चन के स्थान की तरह 'कडुच्छयं पग्गहेतु पयत्ते धूवं दहई दहित्ता सत्तट्ठपयाइं पच्चोसक्कइ २ त्ता वामं जाणुं अंचेइ जाव पणामं करेइ' ऐसा पाठ होना अधिक संगत प्रतीत होता है।
ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के द्रौपदी अधिकार में भी 'णमोत्थुणं' का पाठ प्राचीन प्रतियों के देखने से प्रक्षिप्त सिद्ध होता है। दिल्ली के श्रीयुत् लाला मन्नूलाल जी अग्रवाल की नेश्राय की प्राचीन प्रति में भी ‘णमोत्थुणं' का पाठ नहीं है तथा नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी भी इस स्थल की टीका करते हुए लिखते हैं कि - "जिणपडिमाणं अच्चणं करेई त्ति' ऐकस्या वाचना या मेताव देव दृश्यते वाचनांतरेसु" तथा आगे द्रौपदी प्रकरण में भी 'न च चरितानुवाद वचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति' इत्यादि रूप से इन प्रकरणों को विधि निषेध साधक नहीं मानते हैं। ___ मूर्तिपूजक समाज के प्रतिष्ठित विद्वान् पं. बेचरदास जी भी 'जैन साहित्य मां विकारथवाथी थयेली हानि' (या जैन साहित्य मां विकार) पुस्तक में लिखते हैं कि - 'मूर्ति पूजा आगम विरुद्ध है। इसके लिए तीर्थंकरों ने सूत्रों में कोई विधान नहीं किया है। यह कल्पित पद्धति है।' इस प्रकार मूर्तिपूजक विद्वान भी मूर्तिपूजा के विधान को आगमीय विधान नहीं मानते हैं। तो फिर उसको भगवान् समझकर उसके सामने 'णमोत्थुणं' देने का तो प्रश्न ही नहीं रहता। अर्थात् इन लोगों की मान्यता भी ‘णमोत्थुणं' का पाठ प्रक्षिप्त मानने की तरफ ही है।
आगमों में जहाँ कहीं भी प्रतिमार्चन का वर्णन है। प्राय: वहां का पाठ समान ही है। द्रौपदी के. प्रतिमार्चन के संबंध में स्वयं टीकाकार भी ‘णमोत्थुणं' का वाचनांतर बताते हैं। तथा ‘णमोत्थुणं' के बिना के पाठ को अधिक महत्त्व देते हैं। इस प्रकार प्रतिमार्चन का पाठ सर्वत्र समान होने से सूर्याभ
और विजयदेव के वर्णन में भी 'णमोत्थुणं' का पाठ प्रक्षिप्त ध्यान में आता है। _ विक्रम की ८-९ वीं शताब्दियों में जब चैत्य वासियों का जोर सर्वत्र फैला हुआ था, वे मठाधीश यति बन गये थे। मंदिरों के पैसों की उघराणी करते थे और सारा वहीवट स्वयं की देखरेख में रखते थे। जिसका खंडन 'संबोध प्रकरण' और 'महानिशीथ' में हुआ है। संभवतः इस युग में 'णमोत्थुणं' का पाठ तीनों प्रतियों (जीवाभिगम, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति और ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र) में प्रक्षिप्त हुआ हो तो असंभवित नहीं।
१२ वीं शती में होने वाले नवाङ्गी टीकाकार अभयदेव सूरि तक तो दोनों प्रकार की प्रतियाँ
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