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१०३ तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
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एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली हार पहने, कड़े त्रुटित-भुजबंद, अंगद, केयूर, दसों अंगुलियों में अंगूठियां, कटिसूत्र (करधनी-कंदोरा) त्रि-अस्थिसूत्र, मुरवी कंठमुरवी, प्रालम्ब, कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत से रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया। ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरित और संघातिम-इस प्रकार चार तरह की मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया। फिर दर्दर मलयचंदन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमन रत्नफूलों की माला को धारण किया।
तएणं से विजय देवे के सालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउविहेणं अलंकारेणं अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुढेइ २ त्ता अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ववसायसभं अणुप्पयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ २ त्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स आभिओगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति॥ ___ भावार्थ - तत्पश्चात् वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकारऐसे चार अलंकारों से अलंकृत होकर और परिपूर्ण अलंकारों से सज्जित होकर सिंहासन से उठा और अलंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से निकल कर जिस ओर व्यवसाय सभा है उस ओर आया। व्यवसाय सभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमे प्रविष्ट हुआ और जहाँ सिंहासन था उस ओर जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा। तब उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तक रत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं। . तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हइ २ त्ता पोत्थयरयणं मुयइ पोत्थयरयणं मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ पोत्थयरयणं विहाडेत्ता पोत्थयरयणं वाएइ पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं पगेण्हइ धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खिवेइ २त्ता सीहासणाओ अब्भुटेइ २ त्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता णंदं पुक्खरिणिं अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ २ त्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवगएणं पच्चोरुहइ २ त्ता हत्थं पादं पक्खालेइ २ त्ता एगं महं सेयं रययामयं
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