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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं पगिण्हइ भिंगारं परिहित्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाइं जाव सयसहस्सपत्ताइं ताइं गिण्हइ २ त्ता णंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरेइ २ त्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ भावार्थ - तब वह विजयदेव उस पुस्तक रत्न को ग्रहण करता है पुस्तक रत्न को अपनी गोद में लेता है, पुस्तक रत्न को खोलता है और पुस्तक रत्न का वाचन करता है । पुस्तक रत्न का वाचन करके उसमें अंकित धर्मानुगत व्यवसाय को करने की इच्छा करता है । तदनन्तर पुस्तक रत्न को वहाँ रख कर सिंहासन से उठता है और व्यवसाय सभा में पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल कर जहाँ नंदापुष्करिणी है वहाँ आता है। नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपान - प्रतिरूपक से नीचे उतर कर हाथ-पांव धोता है और एक बड़ी श्वेत चांदी की मत्त हाथी के मुख की आकृति की विमल जल से भरी हुई झारी को ग्रहण करता है और वहाँ के उत्पल कमल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमलों को लेता है और नंदा पुष्करिणी से बाहर निकल कर जिस ओर सिद्धायतन है उस ओर जाने का संकल्प किया। १०४ तणं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया उप्पलहत्थगया जाव हत्थगया विजयं देवं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति ॥ तएणं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा देवीओ य कलसहत्थगया जाव धूवकडुच्छुयहत्थगया विजयं देवं पिट्ठओ पिओ अणुगच्छति ॥ भावार्थ - तत्पश्चात् विजय देव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुत सारे बाणव्यंतर देव और देवियां कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे पीछे चलते हैं । उस विजयदेव के बहुत से आभियोगिक देव और देवियां कोई हाथ में कलश यावत् धूप का कडुच्छक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। ❖❖❖ तणं से विज देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहि य बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्ढीए ससव्वजुत्तीए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे करेमाणे पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेइ २ ता लोमहत्थगं गेहइ लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमज्जइ २ ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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