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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र सभा की ओर जाता है और अलंकार सभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। प्रवेश कर जिस ओर सिंहासन था उस ओर आकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुंह करके बैठा। तत्पश्चात् उस विजयदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और कहा - 'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव का अलंकारिक भाण्ड ( श्रृंगारदान) लाओ । ' वे आभियोगिक देव अलंकारिक भाण्ड लाते हैं । १०२ तणं से विज देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए दिव्वाए सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लूहेइ गायाइं लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपइ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपेत्ता तओऽणंतरं च णं णासाणीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहयं दिव्वं देवदूसजुयलं णियंसेइ णियंसेत्ता हारं पिणिद्धेइ हारं पिणिद्धेत्ता अद्धहारं पिणद्धेइ अद्धहारं पिणिद्धेता एवं एगावलिं पिणंधेड़ एगावलिं पिणिंधेत्ता एवं एएणं अभिलावेणं मुत्नावलिं कणगावलिं रयणावलिं कडगाई तुडियाइं अंगयाइं केऊराइं दसमुद्दियाणंतगं कडिसुत्तगं वेयच्छिसुत्तगं मुरविं कंठमुरविं पालंबं कुंडलाई चूडामणिं चित्तरयणुक्कडं मउडं पिणिंधेड़ पिणिधित्ता गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेइ कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता दद्दरमलयसुगंधगंधिएहिं गंधेहिं गायाइं सुक्किडइ २ ता दिव्वं च सुमणदामं पिणिद्धइ ॥ कठिन शब्दार्थ - तप्पढमयाए - सर्व प्रथम, पम्हलसूमालाए - रोएंदार सुकोमल, गंध कासाईएगंध काषायिक (तौलिये) से, णासाणीसासवायवोज्झं श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, हयलालापेलवाइरेगं - घोडे की लाला - लार से अधिक मृदु, कणग खइयंतकम्मं सोने के तारों से खचित, आगासफलिहसरिसप्पभं- आकाश और स्फटिक रत्न की तरह स्वच्छ । - भावार्थ - तब विजयदेव ने सर्व प्रथम रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगंधित गंध काषायिक-तौलिये से अपने शरीर को पोंछा । शरीर पोंछ कर सरस गोशीर्ष चंदन से शरीर पर लेप लगाया । लेप लगाने के पश्चात् श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त घोड़े की लार से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, आकाश और स्फटिक रत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण किया। बाद में हार पहना, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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