________________
तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
१०१
0
.
कठिन शब्दार्थ - अजियं - नहीं जीते हुए, पालयाहि - पालन कीजिये, णिरुवसग्गं - निरुपसर्ग-उपसर्ग रहित।
भावार्थ - तदनन्तर उस विजय देव का वे चार हजार सामानिक देव परिवार सहित चार अग्रमहिषियाँ यावत् सोलह हजार आत्म रक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यंतर देव देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्ण कलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, सर्वोदक से, सब मिट्टियों से, सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों से यावत् सर्वोषधियों और सरसों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्सव पूर्वक इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं। अभिषेक करके वे सब अलग-अलग सिर पर अंजलि लगाकर इस प्रकार कहते हैं - हे नंद! आपकी जय हो विजय हो! हे भद्र! आपकी जय विजय हो। हे नंद! हे भद्र! आपकी जय विजय हो। आप नहीं जीते हुओ को जीतिये, जीते हुओं का पालन कीजिये, अजित शत्रुपक्ष को जीतिये और विजितों का पालन कीजिये। हे देव! जित मित्र पक्ष का पालन कीजिये और उनके मध्य में रहिये। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हो। बहुत से पल्योपम, बहुत से सागरोपम और बहुत से पल्योपम सागरोपम तक चार हजार सामानिक देवों का यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत से वाणव्यंतर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञा ऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कह कर वे बहुत जोर-जोर से जयजयकार करते हैं, जय जय शब्दों का प्रयोग करते हैं।
तए णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अब्भुढेइ सीहासणाओ अब्भुटेत्ता अभिसेयसभाओ पुरथिमेणं दारेणं पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाद्रिणी करेमाणे २ पुरथिमेणं दारेणं अणुपविसइ पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छई २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिए देवे सद्दावेंति २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स अलंकारियं भंडं उवणेह, तए णं ते अलंकारियं भंडं जाव उवट्ठवेंति॥
कठिन शब्दार्थ - अलंकारियंभंडं - आलंकारिक भाण्ड (श्रृंगारदान)।
भावार्थ - तब वह विजयदेव उस महान् इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठता है और उठ कर अभिषेक सभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकार
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org