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________________ ९७ तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• देव उस विजया राजधानी को अंदर और बाहर से जल का छिड़काव कर झाड़ बुहाड़ कर लीप कर तथा उसकी गलियों और बाजारों को छिड़काव से शुद्ध कर साफ सुथरा करने में लगे हुए हैं। कोई देव विजया राजधानी में मंच पर मंच बनाने में लगे हुए हैं। कोई देव अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई एवं जयसूचक वैजयंती पताकाओं पर पताकाएं लगा कर विज़या राजधानी को सजाने में लगे हुए हैं, कोई देव विजया राजधानी को चूना आदि से पोतने में चंदरवा आदि बांधने में तत्पर हैं। कोई देव गोशीर्ष चंदन, सरस लाल चंदन, चंदन के चूरे के लेपों से अपने हाथों को लिप्त कर पांचों अंगुलियों के छापे लगा रहे हैं। कोई देव विजया राजधानी के घर-घर के दरवाजों पर चंदन-कलश रख रहे हैं। कोई देव चंदन घट और तोरणों से घर के दरवाजे सजा रहे हैं, कोई देव ऊपर से नीचे तक लटकने वाली बडी बड़ी गोलाकार पुष्पमालाओं से उस राजधानी को सजा रहे हैं, कोई देव पांच वर्षों के श्रेष्ठ सुगंधित पुष्पों के पुंजों से युक्त कर रहे हैं, कोई देव उस विजया राजधानी को काले अगर उत्तम कुंदुरुक्क एवं लोभान जला कर उससे उठती हुई सुगंध से उसे मघमघायमान कर रहे हैं अतएव वह राजधानी अत्यंत सुगंध से अभिराम बनी हुई है और विशिष्ट गंध की बत्ती-सी बन रही है। ___ अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुवण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयगवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आभरणवासं, अप्पेगइया देवा हिरण्णविहिं भाइंति, एवं सुवण्णविहिं रयणविहिं वइरविहिं पुप्फविहिं मल्लविहिं चुण्णविहिं गंधविहिं वत्थविहिं आभरणविहिं भाइंति॥ .. भावार्थ - कोई देव स्वर्ण की वर्षा कर रहे हैं, कोई चांदी की वर्षा कर रहे हैं कोई रत्न की कोई वज्र की वर्षा कर रहे हैं, कोई फूल बरसा रहे हैं, कोई मालाएं बरसा रहे हैं, कोई सुगंधित द्रव्य, कोई सुगंधित चूर्ण, कोई वस्त्रं और कोई आभरणों की वर्षा कर रहे हैं। कोई देव हिरण्य बांट रहे हैं, कोई सुवर्ण, कोई रत्न, कोई वज्र, कोई फूल, कोई माल्य, कोई चूर्ण, कोई गंध, कोई वस्त्र और कोई देव आभरण बांट रहे हैं, परस्पर आदान प्रदान कर रहे हैं। ___ अप्पेगइया देवा दुयं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा विलंबियं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा दुयविलंबियं णाम णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा अंचियं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा रिभियं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा अंचियरिभियं णाम दिव्व णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा आरभडं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा भसोलं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा आरभडभसोलं णाम दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा उप्पायणिवायपवुत्तं संकुचियपसारियं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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