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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• गंध-माल्य अलंकार रूप विभूषा से, सर्व दिव्य वाद्यों की ध्वनि से बहुत बड़ी ऋद्धि, बहुत बड़ी द्युति, महान् बल, महान् आभियोग्य परिवार, महान् एक साथ पटु पुरुषों से बजाये गये वाद्यों के शब्द से शंख, ढोल, नगारा, भेरी, झल्लरी, खरमुही, हुडुक्क (बड़ा मृदंग) मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूंज के साथ और उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक करते हैं। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महया महया इंदाभिसेयंसि वट्टमाणंसि अप्पेगइया देवा णच्चोदगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदगवासं वासंति, अप्पेगइया देवा णिहयरयं णट्ठरयं भट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं सब्भिंतरबाहिरियं आसित्तसम्मग्जिओवलित्तं सित्तसुइसम्मट्ठरत्थंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं मंचाइमंचकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं णाणाविहरागरंजियऊसियजयविजयवेजयंतीपडागाइपडागमंडियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं लांउल्लोइयमहियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडझंतमघमघेतगंधुडुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेंति।। ___ कठिन शब्दार्थ - णच्चोदगं - न अधिक पानी, णाइमट्टियं - न अधिक मिट्टी (कीचड़), पविरलफुसियं - प्रविरल स्पृष्टं-विरल बूंदों का छिड़काव, रयरेणुविणासणं - रज रेणु विनाशक, णिहतरयं - निहत रज वाली, भट्ठरयं - भ्रष्ट रज वाली, आसित्तसम्मजित्तओवलित्तं-आसिक्त सम्मार्जितो पलिप्ताम्-जल का छिड़काव कर झाड़ बुहार कर और लीप पोत कर, सित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवीहियंसिक्त-शुचि-सम्मृष्ट-रथ्यान्तराऽऽपण वीथिका-गलियों और बाजार के रास्तों को छिड़काव से शुद्ध कर साफ सुथरा करने में लगे हुए हैं। भावार्थ - उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगंधित जल की वर्षा इस ढंग से करते हैं जिससे न तो पानी अधिक होकर बहता है, न कीचड़ होता है अपितु विरल बूंदों वाला छिड़काव होता है जिससे रजकण, धूलि कण दब जाते हैं। कोई देव उस विजया राजधानी को निहत रजवाली, नष्ट रजवाली, भ्रष्ट रजवाली, प्रशांत रजवाली, उपशांत रज वाली बनाते हैं। कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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