________________
.
५०
जीवाजीवाभिगम सूत्र
वज्रकन्द, सूरणकन्द, खल्लूट, कृमिराशि, भद्र, मुस्तापिण्ड, हरिद्रा, लोहारी, स्निहू, स्तिभु, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी सिकुण्डी, मुषण्डी और अन्य भी इसी प्रकार के साधारण वनस्पतिकायिक समझने चाहिये। ये संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्तक और अपर्याप्तक।
विवेचन - जिन जीवों के साधारण शरीर बादर वनस्पति नाम कर्म का उदय होता है वे सांधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं। जो आलू, मूला, अदरख आदि अनेक प्रकार के हैं। मूल पाठ में जो साधारण वनस्पतिकायिक के भेद बताये हैं उनमें से कितनेक तो प्रसिद्ध हैं और कितनेक भिन्न-भिन्न देशों में प्रसिद्ध है। इनके अलावा भी जो इन्हीं के समान हों उन्हें भी साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक समझ लेने चाहिये। ये जीव संक्षेप से दो प्रकार के होते हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक।
तेसिणं भंते! जीवाणं कइ सरीरंगा पण्णत्ता?
गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेयए कम्मए। तहेव जहा बायरपुढवीकाइयाणं णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उनोसेणं साइरेगजोयणसहस्सं, सरीरगा अणित्यंत्यसंठिया, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई जाव दुगइया तिआगइया परित्ता. अणंता पण्णत्ता, सेत्तं बायरवणस्सइकाइया, सेत्तं वणस्सइकाइया, सेत्तं थावरा ॥२१॥
भावार्थ - प्रश्न- हे भगवन् । उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं?
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के तीन शरीर कहे गये है। यथा - औदारिक, तेजस और कार्मण। इस प्रकार सारा वर्णन बादर पृथ्वीकायिकों की तरह समझना चाहिये। विशेषता यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जपन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट एक हजार पोजन से अधिक है। इनका संस्थान अनियस्थ (अनिपत) है। इन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष को जाननी चाहिये पावत् पेरिगतिक और तीन भागतिक बाले कहे गये है। प्रत्येक बनस्पति में भसण्यात जीव है और साधारण बनस्पति में अनंत जीव कहे गये है। यह बावर वनस्पतिकापिक का वर्णन भा। इसके साथ ही स्थावर का निरूपण पूर्ण हुमा।
विवचन- प्रस्तुत सूत्र में बादर वनस्पतिकायिकों का २३ द्वारों में निरूपण किया गया है। बादर वनस्पतिकोषिकों और बादर पृथ्वीकायिकों के अधिकांश द्वारों में समानता है। जिन द्वारों में अन्तर है वे इस प्रकार हैं - बादर वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनित्थस्थ (नानारूप-अनियत) है। इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन की कही है। यह उत्कृष्ट अवगाहना प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक की अपेक्षा समझनी चाहिये। यह अवगाहना जो एक जीव की कही है वह द्वीप के समीप आये हुए समुद्र आदि में जहाँ उत्सेध
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org