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________________ . प्रथम प्रतिपत्ति - वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन ५१ अंगुल से एक हज़ार योजन होते हैं वहाँ तथा वेलंधर या लवण समुद्र के गो तीर्थ के समीपवर्ती पानी से उठे हुए कमल नाल की अपेक्षा समझना चाहिये। लेकिन टीका में कहे अनुसार नहीं समझना चाहिये। क्योंकि कीचड़ के अभाव में कमल उत्पन्न नहीं होते हैं। अतः आगे के द्वीप समुद्रों की वेदिका आदि में कमल उत्पन हो तो तिरछी नाल बढ़ाकर ऊपर उठ सकने के कारण आगे के द्वीप समुद्रों में कमल उत्पन्न हो सकते हैं। शेष साधारण वनस्पतिकायिकों की अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होती है। बादर वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की कही गई है। यह भी प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक की अपेक्षा ही समझनी चाहिये क्योंकि साधारण शरीर वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की ही होती है। ये तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं. अतः दो गति वाले तथा तिर्यंच, मनुष्य और देवगति से आकर उत्पन्न होते हैं अतः तीन आगति वाले कहे गये हैं। यह भी प्रत्येक शरीर वनस्पति की अपेक्षा समझना । चाहिये क्योंकि सूत्र में प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय और साधारण शरीर वनस्पतिकाय दोनों की साथ ही विवक्षा की गयी है। प्रत्येक शरीरी वनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारण शरीरी वनस्पति जीव अनंत हैं। इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण! बादर वनस्पतिकाय का वर्णन हुआ और इसके साथ ही स्थावर जीवों का निरूपण पूर्ण हुआ। विशेष स्पष्टीकरण - यहाँ पर वनस्पति के उपसंहार में 'परित्ता अणंता' पाठ आया है। अर्वाचीन मूल पाठ की प्रति एवं हस्तलिखित प्रतियों के आधार से जो खुलासा पूज्य गुरुदेव के ध्यान में आया है वह इस प्रकार है... 'परिता अणता' ऐसा पाठ ही ठीक प्रतीत होता है। क्योंकि यहाँ वनस्पति के मूलं भेद दो (सूक्ष्म बादर) ही किये है। सूक्ष्म का उपसंहार उसकी समाप्ति पर कर दिया है। बादर के दो भेद किये है। प्रत्येक के भेद प्रतापना सूत्र के अतिदेश (भलावण) से उपसंहार प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार बता दिया है किन्तु पूरा उपसंहार नहीं किया है। प्रत्येक बनस्पति के भेद मात्र का उपसंहार समझना। पूरा उपसंहार तो शरीरावि धार बताने के बाद ही किया जाता है। दो (सूक्ष्म, बावर) भेदों से ही शरीरादि मार का बर्णन किया जा रहा है। पावर पृथ्वी के सहा भौर पर भैयों की तरह पूरी पावर बनस्पति के प्रत्येक भार साधारण के पास अपाप्त भव बताकर विवरण दिया है। शामिल होने से साधारण वनस्पति में देव न आने पर. भी तीन गति की आगति बताई है। अवगाहना, लेश्या, स्थिति और गत्यागति में भी प्रत्येक का लक्ष्य रख कर फर्क बताया गया है। इस तरह बादर में दोनों शामिल होने से 'परित्ता अणंता' पाठ ठीक प्रतीत होता है। अर्थात् प्रत्येक वनस्पति के लिए 'परित्ता' व साधारण वनस्पति के लिए 'अणंता' पाठ आया है। अतः दोनों के लिए एक-एक शब्द है तथा दोनों शब्द आवश्यक ही है। उपसंहार भी - जैसे श्लक्ष्ण व खर पृथ्वीकाय में भी अलग-अलग नहीं बताते हुए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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