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________________ ४० जीवाजीवाभिगम सूत्र को सोखने की क्षमता हो वह श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी कहलाती है। जिन जीवों का शरीर श्लक्ष्ण पृथ्वी हो, वे श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। जो मिट्टी कर्कशता लिये हुए हो वह खर बादर पृथ्वी कहलाती है। खर बादर पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर हो, वे खर बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। से किं तं सण्ह बायर पुढवीकाइया? सण्हबायर पुढविक्काइया सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा - कण्हमट्टिया भेओ जहा पण्णवणाए जाव ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य॥ भावार्थ - श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय क्या है ? श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय सात प्रकार की कही गई हैं - काली मिट्टी आदि भेद प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार जानने चाहिये यावत् वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्तक और अपर्याप्तक। विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय के सात भेद इस प्रकार हैं - १. काली मिट्टी २. नीली मिट्टी ३. लालं मिट्टी ४. पीली मिट्टी ५. सफेद मिट्टी ६. पांडु मिट्टी और ७. पणग मिट्टी। इन सात प्रकार की श्लक्ष्ण पृथ्वी में रहे हुए जीव श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक हैं। खर बादर पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। प्रज्ञापना सूत्र में मुख्य चालीस भेद इस ..' प्रकार बताये हैं - १. शुद्ध पृथ्वी २. शर्करा ३. बालुका ४. उपल ५. शिला ६. लवण ७. ऊस ८. लोहा ९. तांबा १०. रांगा ११. सीसा १२. चांदी १३. सोना १४. वज्र-हीरा १५. हरताल १६. हिंगलु १७. मनःशीला १८. सासग-पारा १९. अंजन २०. प्रवाल २१ अभ्रपटल २२. अबालुका और मणियों के १८ भेद - २३. गोमेज्जक २४. रुचक २५. अंक २६. स्फटिक २७. लोहिताक्ष २८. मरकत २९. भुजमोचक ३०. मसारगल ३१. इन्द्रनील ३२. चन्दन ३३. गैरिक ३४. हंसगर्भ ३५. पुलक ३६. सौगंधिक ३७. चन्द्रप्रभ ३८. वैडूर्य ३९. जलकांत और ४०. सूर्यकांत। खरबादर पृथ्वीकाय के ये ४० भेद बताने के बाद सूत्रकार ने जे यावण्णा तहप्पगारा' पाठ देकर अन्य भेदों का सूचन भी किया है इस तरह खर बादर पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। ये पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। तेसि णं भंते! जीवाणं कइ सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए तेयए कम्मए, तं चेव सव्वं णवरं चत्तारि लेसाओ, अवसेसं जहा सुहुम पुढविक्काइयाणं आहारो जाव णियमा छहिसिं, उववाओ तिरिक्खजोणियमणुस्स देवेहितो, देवेहिं जाव सोहम्मेसाणेहितो, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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