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________________ ३६ जीवाजीवाभिगम सूत्र पूर्वोक्त चार और अधोदिशा मिला कर पांच दिशाओं में स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है और व्याघात नहीं होने पर छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्रायः - बहुलता से पूर्व के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को बदल कर अपूर्व वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को उत्पन्न कर अपने शरीर क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। संक्षेप में आहार के २८८ भेद इस प्रकार होते हैं - १. पुट्ठा २. ओगाढा ३. अनन्तरोवगाढा ४. सूक्ष्म ५. बादर ६. ऊर्ध्व दिशा का ७. नीची दिशा का ८. तिरछी दिशा का ९. आदि का १०. मध्य. का ११. अन्त का १२. स्वविषयक १३. अनुक्रम से १४. नियम से छहों दिशा का १५. द्रव्य से अनन्त प्रदेशी द्रव्य १६. क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ पुद्गलों का (१७ से २८ तक) काल के १२ भेद। एक समय की स्थिति के पुद्गलों का यावत् दस समय की स्थिति के पुद्गलों का, संख्यात समय की स्थिति के पुद्गलों का और असंख्यात समय की स्थिति के पुद्गलों का लेवे। (२९ से २८८ तक) भाव के २६० भेद हैं - पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श-२० भेद। इनके प्रत्येक के १३ भेद हैं - एक गुण काला, दो गुण काला यावत् दस गुण वाला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला और अनन्तगुण काला। इसी तरह गंध आदि के तेरह-तेरह भेद करने से २०४१३-२६०। पूर्व के २८ मिला कर कुल २६०+२८=२८८ भेद होते हैं। १९. उपपात द्वार ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववज्जति? किं णेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववज्जंति? गोयमा! णो णेरइएहितो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति मणुस्सेहितो उववज्जति णो देवेहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणियपज्जत्तापज्जत्तेहिंतो असंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो उववजंति, मणुस्सेहितो अकम्मभूमिग असंखेज्जवासाउय वज्जेहितो उववजंति, वक्कंती उववाओ भाणियव्वो॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वे जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं? क्या वे नरक से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्य से आकर उत्पन्न होते हैं या देव से आकर उत्पन्न होते हैं? ___उत्तर - हे गौतम! वे नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्य से आकर उत्पन्न होते हैं किंतु देव से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं तो असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़ कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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