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________________ प्रथम प्रतिपत्ति - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण - आहार द्वार वे उन ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों के पुराने (पहले के) वर्ण गुणों को यावत् स्पर्श गुणों को बदल कर, हटा कर, झटक कर, विध्वंश कर उनमें दूसरे अपूर्व वर्ण गुण, गंध गुण, रस गुण और स्पर्श गुणों को उत्पन्न कर आत्मशरीरावगाढं पुद्गलों को सभी आत्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं। . विवेचन - जीव के द्वारा औदारिक आदि योगों से औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करना 'आहार' कहलाता है। तैजस एवं कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करने को आहार नहीं कहा गया है। क्योंकि वाटे वहते जीवों के भी इन दो शरीरों के पुद्गलों का ग्रहण होने पर भी उनको अनाहारक कहा गया है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं वे आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट (छुए हुए) होते हैं, आत्मप्रदेशों में अवगाढ होते हैं। जिन आत्मप्रदेशों में जो व्यवधान रहित होकर रहे हुए हैं वे अनन्तरावगाढ हैं और जो एक दो तीन आदि प्रदेशों के व्यक्धान से रहे हुए हैं वे परम्परावगाढ कहलाते हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अनन्तरावगाढ पुद्गलों को ही: ग्रहण करते हैं, परम्परावगाढ पुद्गलों को नहीं। ये अनन्तरावगाढ पुद्गल अणु भी होते हैं और बादर भी होते हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अणु और बादर दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। .. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जितने क्षेत्र में अवगाढ है उस क्षेत्र में ही वह ऊर्ध्व, अधो या तिर्यक् स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है। जिस अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल में वह जीव उपभोग योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है वह उस अन्तर्मुहूर्त काल के आदि में, मध्य में और अन्त में भी ग्रहण करता है। ये जीव अपने लिए उचित आहार योग्य पुद्गलों को आनुपूर्वी से ग्रहण करते हैं। इन पुद्गलों का कितनी दिशा से ग्रहण करते हैं उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं - जब कोई सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोक निष्कुट में (अंतिम किनारे पर) नीचे के प्रतर के आग्नेय कोण में रहा हुआ हो तो उसके नीचे अलोक होने से अधोदिशा में पुद्गलों का अभाव होता है, आग्नेय कोण में स्थित होने से पूर्व दिशा के पुद्गलों का और दक्षिण दिशा के पुद्गलों का अभाव होता है। इस तरह अधो, पूर्व और दक्षिण-ये तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होने से इनमें पुद्गलों का अभाव है अतः शेष तीन दिशाओं के पुद्गलों का ग्रहण संभव है। इसलिए कहा गया है कि व्याघात की अपेक्षा वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कदाचित् तीन दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। जब वही जीव पश्चिम दिशा में होता है तब उसके पूर्व दिशा अधिक हो जाती है। दक्षिण और अधो-ये दो दिशाएं ही अलोक से व्याप्त होती है इसलिये वह जीव ऊर्ध्वदिशा, पूर्वदिशा, पश्चिम दिशा और उत्तर दिशा-इन चार दिशाओं से पुद्गलों को ग्रहण करता है। . ___ जब वही जीव ऊपर के दूसरे आदि प्रतरगत पश्चिम दिशा में होता है तब उसके अधोदिशा भी अधिक हो जाती है। केवल एक दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याप्त रहती है ऐसी स्थिति में वह जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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