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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र प्रश्न - हे भगवन् ! वे अनन्तर - अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या परम्परावगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं ? ३४ उत्तर - हे गौतम! वे अनन्तर अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं परम्परावगाढ पुद्गलों का आहार नहीं करते हैं । प्रश्न - हे भगवन्! वे अणु-थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं या बादर- अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे अणु-थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं और बादर अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे ऊपर, नीचे या तिर्यक् (तिरछे) स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे ऊपर स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, नीचे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं और तिर्यक् स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं । प्रश्न - हे भगवन्! क्या वे आदि में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं, मध्य में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं या अन्त में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे आदि में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, मध्य में स्थित पुद्गलों कां भी आहार करते हैं और अन्त में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे स्वोचित-अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं या अपने अयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं अयोग्य पुद्गलों का आहार नहीं करते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे आनुपूर्वी समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनानुपूर्वी - दूरस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे आनुपूर्वी समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं, अनानुपूर्वी - दूरस्थ पुद्गलों का आहार नहीं करते हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे तीन दिशाओं, चार दिशाओं, पांच दिशाओं और छह दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे निर्व्याघात-व्याघात न तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं के, कदाचित् चार दिशाओं के, कदाचित् पांच दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। ओसन्न - प्रायः विशेष करके वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव वर्ण से काले, नीले यावत् श्वेत वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, गंध से सुरभिगंध वाले दुरभिगंध वाले, रस से तीखे यावत् मधुर रस वाले, स्पर्श से कर्कश-मृदु यावत् स्निग्ध रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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