SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ जीवाजीवाभिगम सूत्र (जाड़ाई व चौड़ाई में शरीर प्रमाण-दण्ड होता है) वैक्रिय समुद्घात कहलाता है। इसमें वैक्रिय नाम कर्म की क्षपणा होती है। ५. तैजस्-समुद्घात - शीतल अथवा उष्ण तेजोलेश्या किसी पर डालने हेतु तैजस् पुद्गलों को ग्रहण करने के लिए संख्यात योजन तक का एक दिशा अथवा विदिशा में आत्मप्रदेशों का दण्ड निकालना (यह भी जाड़ाई व चौड़ाई में शरीर प्रमाण ही होता है) तैजस् समुद्घात कहलाता है। इसमें तैजस् नाम कर्म की क्षपणा होती है। ६. आहारक समुद्घात - जीवदया, ऋद्धि दर्शन, ज्ञान ग्रहण या संशय निवारण हेतु चौदह पूर्वधारी मुनि द्वारा आहारक पुतला बनाने हेतु आहारक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करने के लिए संख्यात योजन का आत्म-प्रदेशों का दण्ड निकालना (जाड़ाई व चौड़ाई में शरीर प्रमाण दण्ड होता है) आहारक समुद्घात कहलाता है। इसमें आहारक शरीर नाम कर्म की क्षपणा होती है। ७. केवली समुद्घात - वेदनीय आदि कर्मों को खपाने के लिए चार समयों में आत्म-प्रदेशों को समग्र लोक में फैला देना एवं चार समयों में पुनः संकोचित करके शरीरस्थ हो जाना, केवली समुद्घात कहलाता है। इसमें आयु से अधिक स्थिति वाले वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों की क्षपणा होती है। जिन महापुरुषों की आयु ६ माह अथवा उससे कम शेष रहने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है उनमें से जिनकी आयु कम व वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति अधिक होती है उनकी स्थिति सम करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं। केवली समुद्घात के अंतर्मुहूर्त बाद अवश्य मोक्ष हो जाता है। इन सात समुद्घातों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में तीन समुद्घात पाये जाते हैं वे इस प्रकार हैं - १. वेदनीय समुद्घात २. कषाय समुद्घात और ३. मारणांतिक समुद्घात। १०. संजीद्वार ते णं भंते! जीवा किं सण्णी असण्णी? गोयमा! णो सण्णी, असण्णी। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! वे जीव संज्ञी हैं या असंज्ञी हैं? उत्तर - हे गौतम! वे जीव संज्ञी नहीं, असंज्ञी हैं। विवेचन - जिसके मन हो, उसे संज्ञी और जिसके मन नहीं हो, उसे असंज्ञी कहते हैं। आहार आदि चार पर्याप्तियों एवं आहार आदि पांच पर्याप्तियों को बांधने वाले (बांधने के प्रारम्भ से लेकर भव पर्यन्त तक) जीव असंज्ञी कहलाते हैं। छहों पर्याप्तियाँ बांधने वाले (बांधने के प्रारम्भ से लेकर भव पर्यन्त तक या केवलज्ञान होने के पूर्व तक) जीव संज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी ही होते हैं, संज्ञी नहीं क्योंकि वे मन रहित होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy