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प्रथम प्रतिपत्ति सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण - पर्याप्ति द्वार
११. वेद द्वार
ते णं भंते! जीवा किं इत्थिवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया ? गोयमा ! णो इत्थिवेया णो पुरिसवेया, णपुंसगवेया ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव क्या स्त्रीवेद वाले हैं, पुरुष वेद वाले हैं या नपुंसक वेद
वाले हैं ?
उत्तर हे गौतम! वे जीव स्त्रीवेद वाले नहीं है, पुरुष वेद वाले नहीं है किन्तु नपुंसक वेद
वाले हैं।
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विवेचन नाम कर्म के उदय से होने वाले शरीर के स्त्री, पुरुष और नपुंसक रूप चिह्न को 'द्रव्य वेद' कहते हैं और मोहनीय कर्म के उदय से जीव की विषय भोग की अभिलाषा को ' भाव वेद' कहते हैं। उसके तीन भेद हैं - १. स्त्री वेद २. पुरुष वेद और ३. नपुंसक वेद ।
सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नपुंसक वेद वाले हैं। इनका सम्मूच्छिम जन्म होता है और सम्मूच्छिम नपुंसकवेदी ही होते हैं ।
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१२. पर्याप्ति द्वार
तेसि णं भंते! जीवाणं कइ पज्जत्तीओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा ! चत्तारि पज्जत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा आहार पज्जत्ती सरीर पज्जत्ती इंदिय पज्जत्ती आणपाणु पज्जनी |
तेसि णं भंते! जीवाणं कइ अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा ! चत्तारि अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - आहार अपज्जत्ती जाव आणपाणु अपज्जत्ती ॥
भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी पर्याप्तियाँ कही गई है ?
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के चार पर्याप्तियाँ कही गई है। वे इस प्रकार हैं पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति और ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ।
प्रश्न- हे भगवन् ! उन जीवों में कितनी अपर्याप्तियाँ कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के चार अपर्याप्तियाँ कही गई हैं । यथा श्वासोच्छ्वास अपर्याप्ति ।
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१. आहार
विवेचन - आहार आदि के पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार शरीर आदि रूप परिणमाने की आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। इसके छह भेद हैं १. आहार पर्याप्ति २. शरीर
आहार अपर्याप्ति यावत्
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