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प्रथम प्रतिपत्ति - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण - समुद्घात द्वार
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होने से आत्मा इन्द्र है। अत: इन्द्र के चिह्न को 'इन्द्रिय' कहते हैं। जीव को क्षायोपशमिक भावों के द्वारा उपकरण विशेष के माध्यम से जो शब्दादि का ज्ञान होता है, इस क्षयोपशम विशेष को 'भावेन्द्रिय' एवं नामकर्म के उदय से बने हुए उपकरण एवं बाह्य आभ्यन्तर आकारों को 'द्रव्येन्द्रिय' कहते हैं। इसके पांच भेद हैं - १. श्रोत्र-इन्द्रिय (कान) २. चक्षु-इन्द्रिय (आंख) ३. घ्राण-इन्द्रिय (नाक) ४. रसनाइन्द्रिय (जीभ) और ५. स्पर्शन-इन्द्रिय (संपूर्ण शरीर व्यापी त्वचा)। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है।
९. समुद्घात द्वार तेसि णं भंते! जीवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता?
गोयमा! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा - वेयणा समुग्घाए कसाय समुग्धाए मारणंतिय समुग्घाए॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों में कितने समुद्घात कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों में तीन समुद्घात कहे गये हैं। यथा - वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात और मारणांतिक समुद्घात।
विवेचन - वेदना आदि के साथ तन्मय हो कर मूल शरीर को बिना छोड़े प्रबलता से आत्मप्रदेशों को शरीर अवगाहना से बाहर निकाल कर असाता वेदनीय आदि कर्मों का नाश करना समुद्घात कहलाता है। इसके सात भेद हैं - १. वेदनीय २. कषाय ३. मारणांतिक ४. वैक्रिय ५. तैजस् ६. आहारक और ७. केवली। .. १. वेदनीय समुद्घात - असाता वेदनीय कर्म के कारण आत्म-प्रदेशों में स्पन्दन हो कर कुछ आत्म-प्रदेशों का शरीर की अवगाहना से बाहर आ जाना वेदनीय समुद्घात है। इसके द्वारा उदय प्राप्त असाता वेदनीय कर्म का नाश होता है। साता वेदनीय कर्म की समुद्घात नहीं होती है।
२. कषाय समुद्घात - तीव्र क्रोधादि कषायों के कारण आत्म-प्रदेशों में स्पन्दन होकर कुछ आत्म-प्रदेशों का शरीर की अवगाहना से बाहर आ जाना, कषाय समुद्घात कहलाता है। इसके द्वारा उदय प्राप्त कषाय मोहनीय का नाश होता है। चारों कषायों की समुद्घात होती है।
३. मारणांतिक समुद्घात - मृत्यु से अन्तर्मुहूर्त पूर्व उत्पत्ति के स्थान तक लम्बा (शरीर प्रमाण चौड़ा एवं जाडाई वाला) आत्म-प्रदेशों का दंड निकालना, मारणांतिक समुद्घात कहलाता है। इस समुद्घात में आयुष्य कर्म के प्रभूत प्रदेशों की निर्जरा होती है।
४. वैक्रिय समुद्घात - वैक्रिय रूपों का निर्माण करने हेतु वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करने के लिए आत्म-प्रदेशों का एक दिशा अथवा विदिशा में संख्यात योजन तक का दण्ड निकालना
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