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जीवाजीवाभिगम सूत्र
हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिसमें इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की वज्र नामक कील हो, उसे 'वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन' कहते हैं। ...
२. ऋषभ-नाराच संहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कट-बन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो, परन्तु तीनों हड्डियों को भेदने वाली वज्र नामक हड्डी की कील नहीं हो, उसे 'ऋषभ-नाराच संहनन' कहते हैं।
३. नाराच संहनन - जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कट-बन्ध द्वारा जुड़ी हुई हड्डियां हों, परन्तु . इनके चारों ओर वेष्टन-पट्ट और वज्र नामक कील नहीं हो उसे 'नाराच संहनन' कहते हैं।
४. अर्ध नाराच संहनन - जिस संहनन में एक ओर मर्कट बन्ध हो, उसे 'अर्ध नाराच संहनन' कहते हैं।
५. कीलिका संहनन - जिस संहनन में हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हो, उसे 'कीलिकासंहनन' कहते हैं।
६. सेवार्त्तक संहनन - जिस संहनन में हड्डियां पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती है तथा सदा चिकनाई के प्रयोग एवं तैलादि की मालिश की अपेक्षा रखती है, उसे 'सेवार्तक संहनन' कहते हैं। इन छह संहननों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में अंतिम सेवार्त्तक (सेवात) संहनन पाता है।
४.संस्थान द्वार तेसिणं भंते! सरीरा किं संठिया पण्णत्ता? गोयमा! मसूरचंद संठिया पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! उन जीवों के शरीर का संस्थान चन्द्राकार-मसूर की दाल के समान कहा गया है।
विवेचन - नामकर्म के उदय से बनने वाली शरीर की आकृति को 'संस्थान' कहते हैं। संस्थान के छह भेद इस प्रकार हैं -
१. समचतुरस्त्र (समचोरस) - ऊपर, नीचे तथा बीच में समभाग से शरीर की सुन्दराकार आकृति को समचतुरस्र (समचोरस) संस्थान कहते हैं।
२. न्यग्रोध परिमण्डल - वट वृक्ष के समान शरीर की आकृति हो अर्थात् जिसमें नाभि से ऊपर का भाग प्रशस्त विस्तृत लक्षण युक्त पूर्ण एवं शास्त्रानुसार प्रमाण वाला हो और नाभि के नीचे का भाग हीन हो, उसे 'न्यग्रोध परिमंडल संस्थान' कहते हैं। .
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