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________________ तृतीय प्रतिपत्ति- मनुष्य उद्देशक - मनुष्य के भेद ********AEAAAAEEEEEEEEEEE8888888888888888888¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤*********** से किं तं गब्भवक्कंतिय मणुस्सा ? गब्भवक्कंतिय मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा अंतरदीवगा ॥ १०७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! गर्भज मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. कर्मभूमिज २. अकर्मभूमिज और ३. अंतरद्वीपज (अन्तरद्वीपिक) । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में गर्भज मनुष्यों के तीन भेद - कर्मभूमिज (कर्मभूमिक), अकर्मभूमिज (अकर्मभूमिक) और अतंरद्वीपज (अंतरद्वीपिक) का कथन किया गया है। अनानुपूर्वी क्रम से अब सूत्रकार अंतरद्वीपिक मनुष्यों का वर्णन करते हैं से किं तं अंतरदीवगा ? २९५ - Jain Education International अंतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पण्णत्ता, तं जहा - एगूरुया आभासिया वेसाणिवा गंगोलिया हयकण्णा ४ आयंसमुहा ४ आसमुहा ४ आसकण्णा ४ उक्कामुहा ४ घणदंता जाव सुद्धदंता ॥ १०८ ॥ भावार्थ - अंतरद्वीपिक मनुष्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? अंतरद्वीपिक मनुष्य अट्ठाईस प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं- एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, नांगोलिक, हयकर्ण आदि, आदर्श मुख आदि, अश्वमुख आदि, अश्वकर्ण आदि, उल्कामुख आदि घनदन्त आदि यावत् शुद्धदंत । विवेचन लवण समुद्र के भीतर होने से अथवा परस्पर द्वीपों में अंतर (दूरी) होने से ये अन्तरद्वीप कहलाते हैं। अंतरद्वीपों में रहने वाले मनुष्यों को अंतरद्वीपिक कहते हैं। अतंरद्वीपिक मनुष्यों के अट्ठावीस भेद इस प्रकार हैं १. एकोरुक २. आभाषिक ३. वैषाणिक ४. नांगोलिक ५.. हयकर्ण ६. गजकर्ण ७. गोकर्ण ८. शष्कुली कर्ण ९. आदर्शमुख १०. मेण्ढमुख ११. अयोमुख १२. गोमुख १३. अश्वमुख १४. हस्तिमुख १५ सिंहमुख १६. व्याघ्रमुख १७. अश्व कर्ण १८. सिंहकर्ण १९. अकर्ण २०. कर्ण प्रावरण २१. उल्कामुख २२. मेघ मुख २३. विद्युन्मुख २४. विद्युद्दन्त २५. घनदन्त २६. लष्ट दन्त २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त । यद्यपि अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ होती है तथापि यहां पर जो २८ बताई गई है उसका कारण यह है कि नाम २८ ही होते हैं। ये ही २८ नामों वाले अन्तरद्वीप चुल्लहिमवन्त पर्वत की चारों विदिशाओं में सात-सात की चार पंक्तियों के रूप में आये हुए हैं तथा ये ही २८ नामों वाले अन्तरद्वीप शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में सात-सात की चार पंक्तियों के रूप में आये हुए हैं। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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