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तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय तिर्यंचयोनिक उद्देशक - अविशुद्ध लेशी-विशुद्ध लेशी अनगार २८९
(जीवाभिगम, भगवती आदि) में त्रसकाय के १९ (उन्नीस) ही दण्डकों में जघन्य उपपात 'एकोत्तरिया' (१,२,३ यावत् संख्याता, असंख्याता) बताया है। अतः सभी दण्डकों का उपपात-जघन्य में बहुत थोड़ा होना चाहिए। 'सागरोपम शत पृथक्त्व' जितनी संख्या की कोई संभावना भी नहीं है।
बन्ध विहाणं (मूल पयडी बन्धो) ग्रन्थ के पृष्ठ २८६ में 'त्रसों के आयु बंधक अशाश्वत है।' ऐसा बताया गया है। प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक' को 'प्रथम समय के त्रसकायिक' मानने पर 'जघन्य पद से उत्कृष्ट पद को असंख्यात गुणा' मानना पड़ेगा। अतः प्रत्युत्पन्न (पडुप्पण्ण) शब्द का अर्थ 'वर्तमान कालीन' करना ही उचित प्रतीत होता है।
॥इति संभावना॥ तत्वं तु बहुश्रुतगम्यम् इति॥
अविशुद्ध लेशी-विशुद्ध लेशी अनगार अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं. देविं अणगारं जाणइ पासइ?
गोयमा! णो इणद्वे समतु।
अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
गोयमा! णो इणढे समढे।
अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
गोयमा! णो इणद्वे समढे। - अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?"
गोयमा! णो इणढे समढ़े।
अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं ‘देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
गोयमा! णो इणटे समढ़े। - अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ?
गोयमा! णो इणढे समढे।
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