SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शत पृथक्त्व काल में प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीव निर्लेप हो सकते हैं किंतु यहां जघन्य पद के काल से उत्कृष्ट पद का काल विशेषाधिक समझना चाहिये । २८८ = विशेष विवेचन - प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय संबंधी विचारणा- इस वर्णन में प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों को जघन्य पद और उत्कृष्ट पद में 'अपद' कहा है। यदि इसका अर्थ 'टीका के अनुसार' प्रथम समय के ( तत्काल उत्पद्यमान) वनस्पति किया जायेगा तो अपद की स्थिति नहीं बन सकेगी। क्योंकि पांचों कायों में से आकर वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुए प्रथम समय के वनस्पतिकायिकों . की तो निश्चित संख्या है। इससे जघन्य पद व उत्कृष्ट पद संभव हैं । आगम में जघन्य, उत्कृष्ट पद में 'अपद' कहा है। अतः इसका अर्थ टीकानुसार करना उचित प्रतीत नहीं होता है । इसका अर्थ तो 'वर्तमान में जो वनस्पतिकाय का आयु वेदन कर रहे हैं, वे सभी प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकाय कहलाते हैं।' ऐसा अर्थ करने पर जघन्य, उत्कृष्ट पद में 'अपदता' सिद्ध हो जाती है। क्योंकि सिद्ध होने पर जीव वनस्पतिकाय में से घटते ( कम होते ) हैं । अतः उनका जघन्य उत्कृष्ट पद निश्चित नहीं हो सकता । वनस्पति के समान ही 'प्रत्युत्पन्न पृथ्वी' आदि पांचों कायों का भी यही अर्ध करना चाहिये ।' 'प्रत्युत्पन्न' शब्द वर्तमान का द्योतक है। 'प्रथम समय' के लिए तो इसी आगम में 'पढम समय' शब्द का प्रयोग किया गया है । अतः प्रत्युत्पन्न शब्द का अर्थ 'प्रथम समय' करना उचित नहीं है । . शंका - यदि वर्तमान के सभी त्रस जीवों को प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक समझा जायेगा तो इनकी संख्या 'सागरोपम शत पृथक्त्व' कैसे सिद्ध (घटित ) होगी ? समाधान प्रज्ञापना सूत्र के १२ वें पद में 'बद्धमुक्त शरीरों के वर्णन में' तो प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीव 'प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण विष्कंभ सूचि ' जितने ही बताये हैं । इसका समाधान यही है कि यहां पर 'अद्धा सागरोपम' नहीं समझकर 'क्षेत्र सागरोपम' लेने चाहिये । 'पृथक्त्व' शब्द 'अनेक' अर्थवाची होने से अन्य स्थलों की तरह यहां पर भी 'असंख्यात' के अर्थ समझना चाहिये। इस प्रकार अर्थ करने पर प्रज्ञापना सूत्र के १२ वें पद के अनुसार 'असंख्यात कोटाकोटी योजन' प्रमाण प्रतर के असंख्यातवें भाग के प्रदेशों जितने त्रस जीवों का प्रमाण होता है। अतः सागरोपम शत पृथक्त्व शब्द भी उसी अर्थ का द्योतक - पूरक हो जाता है। प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकायिक आदि चार कायों को यहां पर 'असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी प्रमाण' बताया है। इसे भी असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों को गिनने में जितनी असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी होती है उतनी यहां पर ग्रहण करनी चाहिये । चार कायों के अत्यधिक जीव जब वनस्पतिकाय में उत्पन्न हो जाते हैं तब जघन्य पद वाले प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकायिक आदि प्राप्त होते हैं । जब अत्यधिक जीव इन कायों में विद्यमान ( मौजूद रहते हैं, तब उत्कृष्ट पद वाले प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकायिक आदि कहलाते हैं । जघन्य पद से उत्कृष्ट पद की अधिकता बताना संभव नहीं है । त्रसकाय मात्र बादर एवं अत्यल्प होने से जघन्य पद से उत्कृष्ट पद विशेषाधिक ही होता है। आगम Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy