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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय तिर्यंचयोनिक उद्देशक - पृथ्वीकायिकों का वर्णन २८७ विवेचन - यहां निर्लेप का अर्थ है - प्रति समय एक एक जीव का अपहार किया जाय तो कितने समय में वे जीव सब के सब अपहृत हो जायें अर्थात् वह आधार स्थान उन जीवों से रिक्त हो * जाय। प्रस्तुत सूत्र में प्रत्युत्पन्न-वर्तमान काल के पृथ्वीकायिक जीवों के निर्लेप होने के विषय में प्रश्न किया गया है। जघन्य से अर्थात् जब एक समय में कम से कम पृथ्वीकायिक जीव मौजूद होते हैं उस अपेक्षा से यदि प्रत्येक समय में एक एक जीव अपहृत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां समाप्त हो जावेंगी। इसी प्रकार उत्कृष्ट से जब एक ही काल में अधिक से अधिक पृथ्वीकायिक जीव मौजूद होते हैं उस अपेक्षा से एक एक समय में एक एक जीव का अपहार किया जाय तो भी पूरे अपहरण में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां व्यतीत हो जायेगी अर्थात् इतने काल में वह स्थान पूरा उन जीवों से खाली होगा। यहां जघन्य पद से उत्कृष्ट पद असंख्यातगुणा अधिक है। प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकायिक की तरह प्रत्युत्पन्न अप्कायिक, प्रत्युत्पन्न तेजस्कायिक और प्रत्युत्पन्न वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिये। पडुप्पण्ण वणप्फइकाइया णं भंते! केवइ कालस्स णिल्लेवा सिया? गोयमा! पडुप्पण्ण वणप्फइकाइया जहण्णपए अपया उक्कोसपए अपया पडुप्पण्ण वणप्फइकाइयाणं णत्थि णिल्लेवणा॥ पडुप्पण्ण तसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपए सागरोवम सय पुहुत्तस्स उक्कोसपए सागरोवम सय पुहुत्तस्स, जहण्णपया उक्कोसपए विसेसाहिया॥१०२॥ भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं? उत्तर - हे गौतम! प्रत्युत्पन्न वनस्पंतिकायिकों के लिये जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वनस्पतिकायिक अनन्तानन्त होने से उनका निर्लेप नहीं हो सकता। . प्रश्न-- हे भगवन्! प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं? उत्तर - हे गौतम! प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीव जघन्य सागरोपम शतपृथक्त्व काल में और उत्कृष्ट भी सागरोपम शत पृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं। यहां जघन्य से उत्कृष्ट पद विशेषाधिक समझना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना संबंधी प्रश्न के उत्तर में जघन्य पद में और उत्कृष्ट पद में अपया-अपद कहा गया है अर्थात् उक्त पद द्वारा वे नहीं कहे जा सकते हैं। क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्तानंत है अतएव 'वे इतने समय में अपहृत हो जायेंगे' ऐसा कहना संभव नहीं है। जघन्य पद में सागरोपम शत पृथक्त्व (दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम) जितने काल में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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