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जीवाजीवाभिगम सूत्र
है। इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के स्थिति पद के अनुसार यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों तक की स्थिति कह देनी चाहिये।
जीवे णं भंते! जीवेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! सव्वद्धं। पुढविकाइए णं भंते! पुढविकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! सव्वद्धं एवं जाव तसकाइए॥१०१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव, जीव रूप में कब तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! सब काल तक जीव जीव ही रहता है। प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक रूप में कब तक रहता है ? ..
उत्तर - हे गौतम! सामान्य की अपेक्षा पृथ्वीकाय सर्वकाल तक रहता है। इस प्रकार त्रसकाय तक कह देना चाहिये।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने भवस्थिति का वर्णन करने के बाद कायस्थिति का कथन किया है। 'जीव पद' से यहां किसी एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुआ किंतु जीव सामान्य का ग्रहण हुआ है। अर्थात् जीवं, जीव के रूप में सदा रहेगा ही। वह सदा जिया है, जीता है और जीता रहेगा। इस प्रकार जीव को लेकर सामान्य जीव की अपेक्षा कायस्थिति कही गई है। पृथ्वीकाय भी पृथ्वीकाय रूप में सामान्य से सदैव रहेगा ही, कोई भी समय ऐसा नहीं होगा जब पृथ्वीकायिक जीव नहीं रहेंगे। इसलिये उनकी काय स्थिति सर्वाद्धा कही गई है। पृथ्वीकाय की तरह अप्काय आदि जीवों की कायस्थिति भी इसी प्रकार से समझ लेनी चाहिये।
पडुप्पण्ण पुढविकाइया णं भंते! केवइकालस्स णिल्लेवा सिया? __ गोयमा! जहण्णपए. असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि, उक्कोसपए असंखेजाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं जहण्णपयाओ उक्कोसपए असंखेजगुणा, एवं जाव पडुप्पण्णवाउक्काइया॥ __कठिन शब्दार्थ - पडुप्पण्ण - प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान काल के, णिल्लेवा - निर्लेप-खाली होना . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्युत्पन्न पृथ्वीकायिक (वर्तमान काल के पृथ्वीकायिक) जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल में वर्तमान काल के पृथ्वीकायिक जीव निर्लेप हो सकते हैं। यहां जघन्य से उत्कृष्ट असंख्यात गुणा समझना चाहिये। इसी प्रकार यावत् प्रत्युत्पन्न वायुकायिक के विषय में कह देना चाहिये।
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