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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र *HHH परम्परसिद्ध - परम्परसिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं जैसे - अप्रथम समयसिद्ध, द्वितीय समय सिद्ध, तृतीय समय सिद्ध यावत् अनन्तसमय सिद्ध। सिद्धत्व के द्वितीय आदि समय में स्थित परम्परसिद्ध होते हैं अतः जिन्हें सिद्ध हुए दो समय हुए वे अप्रथम समय परम्परसिद्ध हैं। जिन्हें सिद्ध हुए तीन समय हुए हैं वे द्वितीय समय सिद्ध हैं इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिये। परम्पर सिद्ध के भेदों में पहले भेद 'प्रथम समय सिद्ध' के स्थान पर 'अप्रथम समय सिद्ध' कहना ज्यादा उचित लगता है क्योंकि जिन्हें सिद्ध हुए द्वितीय आदि समय हुए हों अर्थात् प्रथम समय (विग्रह गति-वाटे बहते) के सिद्धों के सिवाय शेष सभी सिद्ध अप्रथम समय वाले कहे जाते हैं। अनन्तर सिद्ध के १५ भेदों को ही प्रथम समय के सिद्ध कहा जाता है। प्रज्ञापना टीका में किये हुए अप्रथम समय सिद्धों के अर्थ उचित नहीं लगते हैं। अतः नंदी सूत्र के अनुसार अर्थ समझना चाहिये। संसार समापन्नक जीवाभिगम से किं तं संसार समावण्णग जीवाभिगमे? संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओणव पडिवत्तीओ एवमाहिज्जंति, तं जहांएगे एवमाहंसु-दुविहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु-तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु-चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, एएणं अभिलावेणं जाव दसविहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता॥८॥ कठिन शब्दार्थ - पडिवत्तीओ - प्रतिपत्तियाँ (जानकारियां), एवं आहंसु- ऐसा कहते हैं। भावार्थ - वह संसारसमापन्नक जीवाभिगम क्या है? संसार समापन्नक जीवों की नौ प्रतिप्रत्तियाँ इस प्रकार कही गई हैं - १. कोई ऐसा कहते हैं कि - संसार समापन्नक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। २. कोई ऐसा (आचार्य नय विशेष का आश्रय लेकर विवक्षा से) कहते हैं कि - संसार समापन्नक जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। ३. कोई ऐसा कहते हैं कि संसार समापन्नक जीव चार प्रकार के कहे गये हैं। ४. कोई ऐमा कहते हैं कि - संसार समापन्नक जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं। इस अभिलाप से - इस प्रकार से यावत् दस प्रकार तक संसार समापन्नक जीव कहे गये हैं। विवेचन - संसारी जीवों के भेदों के कथन से प्रस्तुत सूत्र में नौ प्रतिपत्तियाँ (अपेक्षा भेद से मान्यताएं) कही गयी है यानी नौ प्रकार से जीवों का कथन किया गया है। जैसे कि - कोई आचार्य (नय विशेष का आश्रय लेकर विवक्षा से) संसारी जीवों के दो भेद कहते हैं। कोई आचार्य संसारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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