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जीवाजीवाभिगम सूत्र
ऋतु
में वर्त्तते हुए बुखार वाले को सर्दी गर्मी विशेष लगती है और नीरोग को कम, वैसे ही कर्म अल्प होने से क्षेत्र वेदना भी कम होती है । अन्योन्य कृत वेदना भी कम होती है। क्योंकि स्वयं होकर सामना नहीं करने पर दूसरा कितना दुःख देगा ?
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नैरयिकों का दुःख से उछलना
णेरड्याणुप्पाओ, उक्कोसं पंच जोयणसयाई । दुक्खेणाभिहुयाणं, वेयणसयसंपगाढाणं ॥ ७ ॥
कठिन शब्दार्थ - णेरइयाणुप्पाओ नैरयिकों का उत्पात (उछलना), दुक्खेणभिहुयाणंदुःखेनाभिद्रुतानाम्-दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त, वेयणसयसंपगाढाणं - वेदनाशत्संप्रगाढा:-सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ होने से।
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भावार्थ - सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ़ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक दुःखों से छटपटाते हुए उत्कृष्ट पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं ॥ ७॥
विवेचन - अपरिमित वेदनाओं से युक्त नैरयिक जीव कुंभियों में पकाये जाने पर तथा भाले आदि से भेदे जाने पर भय से त्रस्त होकर जघन्य एक कोस उत्कृष्ट पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं। इस गाथा के बाद कहीं कहीं ऐसा पाठ भी मिलता है कि - 'णेरइयाणुप्पाओ गाउय उक्कोस पंचजोयणसयाई' अर्थात् जघन्य से एक कोस और उत्कृष्ट से ५०० योजन तक ऊपर उछलते हैं । ये ५०० योजन उत्सेध अंगुल से समझना चाहिये ।
अच्छिणिमीलियमेत्तं णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं ।
रए णेरइयाणं, अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - अच्छिणिमीलियमेत्तं - अक्षिनिमेष मात्र काल के लिए भी, पडिबद्धं - प्रतिबद्ध, अहोणिसं- अहर्निश रात दिन, पच्चमाणाणं अनुभव करते हुए ।
भावार्थ - रात दिन दुःखों से पचते हुए नैरयिकों को नरक में आंख मूंदने मात्र काल के लिए भी सुख नहीं है किंतु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है।
जीव के द्वारा छोड़े गये शरीर
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तेया कम्मसरीरा, सुहुमसरीरा य जे अपज्जत्ता । जीवेण मुक्कमेत्ता, वच्छंति सहस्ससो भेयं ॥ ९॥
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