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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - तृतीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों के दुःख . २६३ कठिन शब्दार्थ - जीवेण - जीव के द्वारा मुक्कमेत्ता - छोड़े जाने पर, सहस्ससो - सहस्रशोहजारों, भेयं- भेद (खण्ड)। भावार्थ -"तैजस कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं। विवेचन - नैरयिकों के वैक्रिय शरीर के पुद्गल उन जीवों द्वारा शरीर छोड़ते ही हजारों खण्डों में छिन्न भिन्न होकर बिखर जाते हैं। इस प्रकार बिखरने वाले अन्य शरीरों का कथन भी यहां प्रसंगवश कर दिया है। तैजस कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले जीवों के औदारिक शरीर और पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों के शरीर, जीवों द्वारा छोड़े जाते ही बिखर जाते हैं अर्थात् उनके परमाणुओं का संघात छिन्न भिन्न हो जाता है। नैरयिकों के दुःख अइसीयं अइउण्हं, अइतण्हा अइखुहा अइभयं वा। णिरए णेरइयाणं, दुक्खसयाई अविस्सामं॥१०॥ . कठिन शब्दार्थ - अइसीयं - अतिशीत, अइठण्हं - अति उष्ण, अइतण्हा - अति तृषा, अइभयं - अतिभय, दुक्खसयाई - सैकड़ों दुःख, अविस्सामं - अविश्राम-विश्राम रहित। . भावार्थ - नरक में नैरयिकों को अत्यंत शीत, अत्यंत उष्ण, अत्यंत भूख और प्यास, अत्यंत भय और सैकड़ों दुःख लगातार बने रहते हैं। एत्थ य भिण्णमुहुत्तो पोग्गल असुहा य होइ अस्साओ। उववाओ उप्पाओ अच्छि सरीरा उ बोद्धव्वा॥११॥ से तं णेरइया॥तइओ णेरइय उद्देसो समत्तो॥ भावार्थ - उपरोक्त गाथाओं में विकुर्वणा का अवस्थान काल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल आदि में क्षणिक साता, छटपटाते हुए ऊपर उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रिय शरीर का बिखरना तथा नरकों में होने वाली सैकड़ों वेदनाओं का वर्णन किया गया है। . नैरयिकों का वर्णन समाप्त। तृतीय नैरयिक उद्देशक समाप्त। विवेचन - प्रस्तुत गाथा पूर्वोक्त सभी गाथाओं की संग्रहणी गाथा है। इस गाथा में सूत्रकार ने . उपसंहार करते हुए इन गाथाओं का अर्थ संग्रह किया है। ॥जीवाभिगम सूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति का तीसरा नैरयिक उद्देशक समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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