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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय चैरयिक उद्देशक- नरकों में उपपात . २५५ भावार्थ प्रश्न हे भगवन्- इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तस्कावासों में से प्रत्येक में सक प्राण, सब भूत, सब जीव, सब सत्त्व पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में और रियिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुप हैं ? SEE N ETIES - THE का उत्तर - हाँ गौतम अनेक बार अथमा अनंत बार-उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि जिस पृथ्वी में जितने तरकावास हैं उनका उल्लेख वहां करना चाहियेा iemp ES PETERATFFICी विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी आदि के नरकावासों में सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व प्रत्येक में अनेक बार अथवा अनंत बार पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं क्योंकि यह संसार अनादिकाल से है और अनादिकाल से सभी संसारी, जीक जाम मरणा कर रहे हैं अतः बहुत बार अथवा अनन्तः बार इन नरकावासों में भी उत्पन्न हुए हैं। कहा भी है - 'ण सा जाई ण सा जोणी जत्थ जीवो ण जायई' अर्थात् - ऐसी कोई जाति और ऐसी कोई योनि नहीं है जहां इस जीव ने अनन्त बार-जूना मरण न किया हो IF TYRETSोपा को FTER EYESH मूलपाल में आये प्राणन भूत, जीव और सल्व शब्दों का अर्थ इस पाथा से स्पष्ट होता है IEET प्राणा द्वि त्रिचतु: प्रोता भूताच तदवः स्मृताः RETTE BITTERY TT or जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषा टाका उदीक्षिHOTramme org अर्थात् - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चरिन्द्रिय जीव 'म्या कहलाते हैं। बसपति का नाम 'भूत' शब्द से, पंचेन्द्रियों का ग्रहण 'जीव' शब्द से होता है पृथ्वीकायिक, अपकायिक देककायिक, और वायुकायिक जीव 'सत्त्व' कहलाते है। RITERRRRRRIES Ift. पुलवाएणरयपारसामतस जपुटावक्काया जाव TIMonाण वण्णफइकाइया ते णं भंते। जीवा महाकम्मतराव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा घेव महावेषणतराव? HAPATI TOTS पारमामात एता गापमाामास ण रमणप्पभाएमाए.. पासातसत व जाव । महावयणतरा चेव, एवं जावं अहसत्तमाMish Happ fr णी TICITIES कठिन शब्दार्थ - णिरयपरिसामतेसु-नरकावासों के यन्तवती प्रदेशों में, महाकम्मतरा - महाकर्मतर-महा कर्म वाले, महाकिरियतरीमही क्रियातामही क्रिया बाले, महाआसवतरा - महाआस्रवतर-महाआस्रव वाले, महावयणतरा - महावेदमातर-मह िवदमा वलि HERITY भावार्थ - प्रश्न - हे भावनाइस प्रलप्रभा पृथ्वीनस्कावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो प्पभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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