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तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक नैरयिकों की विकुर्वणा
समुद्रों का जल तथा सब खाद्य पुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न ही उसकी प्यास शांत हो सकती है। हे गौतम! ऐसी तीव्र भूख प्यास की वेदना उन रत्नप्रभा के नैरयिकों को होती है। इसी प्रकार यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों के विषय में समझना चाहिये ।
विवेचन नैरयिक जीव सदैव भूख व प्यास की अग्नि में जलते रहते हैं। संसार की सारी भोजन सामग्री से भी उन्हें तृप्ति नहीं होती । प्यास के मारे उनके कण्ठ, ओष्ठ, तालु, जीभ आदि सूखे रहते हैं। सारे समुद्रों के पानी से भी उनकी प्यास नहीं बुझ सकती है।
नैरयिकों की विकुर्वणा
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इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पि पभ विउव्वित्तए ?
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गोयमा ! एगत्तं पि पभू पुहुत्तं पि पभू विउव्वित्तए, एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा एवं मुसुंठि करवत्त असिसत्तीहलगया मुसलचक्कणारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला य जाव भिंडमालरूवं वा पुहुत्तं विउव्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूवाणि वा ताइं संखेज्जाइं णो असंखेज्जाई संबद्धाइं णो असंबद्धाई सरिसाई णो असरिसाइं विउव्वंति विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं णिट्ठरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए ।
छट्ठसत्तमासु णं पुढवीसु णेरइया बहू महंताइं लोहियकुंथूरूवाइं वइरामइतुंडाई गोमयकी समाणाइं विउव्वंति विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा समतुरंगेमाणा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेयणं उदीरंति उज्जलं जाव दुरहियासं ॥ कठिन शब्दार्थ एगत्तं एक रूप की, पुहुत्तं अनेक रूपों की, विउव्वेमाणा विकुर्वणा करते हुए, पभू - समर्थ, संबद्धाई संबद्ध- अपने शरीर से संलग्न, असंबद्धाई - असंबद्ध, सरिसाई - सदृशानि - सदृश - स्व शरीर तुल्य, असरिसाई - असदृश विरूप, अभिहणमाणा - चोट पहुंचा कर, उज्जलं - उज्ज्वल लेश मात्र भी सुख नहीं होने से, जाज्वल्यमान विडलं विपुल-सकल शरीर व्यापी प्रगाढ़ मर्म देशव्यापी होने से अतिगाढ, कक्कसं कर्कश जैसे पाषाणखंड
होने से विस्तीर्ण, पगाढं
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