SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ जीवाजीवाभिगम सूत्र ........ का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़ देने वाली होने से कर्कश, कडुयं - कटुक, फरुसं - परुष (कठोर-मन में रूक्षता पैदा करने वाली पिळुरं निष्ठुर-अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य, चंडं - चण्ड-रौद्र अध्यवसाय का कारण होने से चण्ड, दुहगंज दुर्लंघ्य, दुरहियासं - दुःसह्य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ? - उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के वैरयिक-एक रूप भी बना सकते हैं और अनेक रूप भी बना सकते हैं। एक रूप बनाते हुए वे एक महान् मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं इसी प्रकार एक भुसंढी, करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट और भिण्डमाल बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर, भुसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं। इस प्रकार विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा करते हैं, असंख्यात शस्त्रों को नहीं सेंबद्ध की विकुर्वणा करते हैं, असंबद्ध की नहीं। सदृशं की रचना करते हैं, असदृश की नहींबाइन विविध शस्त्रों की विकर्षणा करके वे जैरपिका परस्पर एक दूसरे पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं वह दशा उज्ज्वल, विपुल, प्रमाढ, कर्कश, कटुक, कठोर, निष्ठुर, चण्ड तीव्र, दुःख रूप, दुलंध्य और इसहा. होती है। इस प्रकार धूमप्रभा पृथ्वी तक कह देना चाहिये। छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े लाल कथुओं की विकुर्वणा करते हैं जिनका मुख मानो वन जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते है, ऐसे कंथुओं की रचना करके वे एक Trivia दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटत ह और 'सी पर्व वाले इक्षु के काडी की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते है और उनको उज्ज्वल यावत् दुःसब वेदना उत्पन्न UN. या प्रस्तुत सूत्र में तरको में बेल्ला का वर्णन किया गया है। पानी नरक का आपस में सकापूसरे के प्रकार से वेदना होती है अनामिजीव प्रतिष शाहीर होने सेजाल र भकाररूप बना कर एक दूसो-को कष्ट पहुंचाते है। गया मगर भाखिशाल बना कर पा-यूमरे पर भानामा करते हैं। बिच्छू, साप आदि बन कर काटते हैं, कोई बन कर सारे शरीर में घुस जाते हैं। इस तरह के रूप नैरयिक जीव संख्यात ही कर सकता है, असंख्यात नहीं। एक शरीर से सम्बद्ध (जुड़े हुए) ही कर सकता है; असम्बद्ध नहीं, एक सरीखे ही कर सकता है, धित चिन्न प्रकार के नहीं। इस तरह पांचवीं नरक तक नैरयिक जीक एक दूसरे के द्वारा दुःख का अनुभव करते हैं। . FTTE छठी और सातवीं नरक के नैरयिक भी तरह तरह के कीड़े बन कर एक दूसरे को कष्ट पहुंचाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy