________________
तृतीय प्रतिपत्ति- द्वितीय नैरयिक उद्देशक- नरकावासों की मोटाई आदि
-
भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की मोटाई तीन हजार योजन की है। वे नीचे एक हजार योजन तक घन है, मध्य में एक हजार योजन तक झुषिर (खाली) हैं और ऊपर एक हजार योजन तक संकुचित हैं । इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए।
विवेचन - प्रश्न - नरकों में कुंभियां और नरकावास कैसे आये हुए हैं ?
उत्तर - कुंभियां दीवाल में तथा दीवाल से दूर-दूर होने के कारण जमीन में जहाँ पर भी गड्ढे हो वहां हो सकती है। नरकावासों में ये कुंभियां कितनी ऊँचाई पर हैं। इसका उल्लेख देखने में नहीं आया है । तथापि वहां के नेरियों से अधिक ऊंची संभव नहीं हैं। कुंभियां अवगाहनानुसार छोटी बड़ी हो सकती हैं। जिस प्रकार चर्मरत्न पृथ्वीकाय का होते हुए भी लचीला होने से मन चाहा मुड़ जाता है, वैसे ही कुंभियां पृथ्वीमय होते हुए भी उनका मुंह बालक की प्रसूतिवत् फूल जाता होगा। जिससे वे नेरिये कुंभि से स्वतः ही बाहर निकल जाते हैं । परमाधामी ही बाहर निकाले, ऐसी बात नहीं है । नेरिये भी दूसरे नेरिये को निकाल सकते हैं।
योनिस्थान ही कुंभियां होने से उनमें क्षेत्र वेदना कम संभव है। अपर्याप्तावस्था तक एवं उसके बाद भी कुछ समय तक सातावेदना रह सकती है। एक ही प्रतर में रहे हुए नारकों की वेदना में अत्यधिक फर्क पड़ने की संभावना नहीं हैं। कुंभियां असंख्याता है व विमान संख्याता हैं। एक-एक नाम वाली अनेक कुंभियां व विमान हो सकते हैं।
चारकशालावत् नरकावासा हैं। जैसे चारकशाला की कोई संभाल नहीं होती, अंधकार युक्त रहती है। ऐसा ही नरकावासों के विषय में भी समझना चाहिए। असंख्यात योजन के नरकावासों में असंख्यात योजन का खुला मैदान कम संभव होने से एक नरकावास में भी अनेक भित्तियां हो सकती है।
उपिं संकुइया सहस्सं प्रत्येक प्रतर के सभी नरकावासों का उपरीय भाग एक छत के समान है । उसी एक छत के अलग-अलग स्थानों पर पंक्तिबद्ध, पुष्पावकीर्ण नरकावासे आये हुए हैं। नरकावासों के संस्थानों के कारण ऊपर एक छत होते हुए भी बीच-बीच में यथासंभव कुछ-कुछ छूट भी सकता है। वहां पर पोलार एवं घनता दोनों यथा संभव हो सकते हैं। नरकावासों के नीचे के क्षेत्र की अपेक्षा ऊपर का क्षेत्र कम चौड़ा होने से उसे संकुचित कहा गया है।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाएं पुढवीए णरगा केवइयं आयामविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता ?
• गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य, तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
२२३
************
www.jainelibrary.org