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________________ द्वितीय प्रतिपत्ति नपुंसकों का अल्पबहुत्व - गोग्रमा! सव्वत्थोवा अंतरदीवग अकम्मभूमगमणुस्स णपुंसगा देवकुरु उत्तरकुरु अकम्मभूमग मणुस्स णपुंसगा दो वि संखेज्जगुणा एवं जाव पुव्वविदेह अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्स णपुंसगा दो वि संखेज्जगुणा ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इन मनुष्य नपुंसकों में कर्मभूमिज मनुष्य नपुंसकों में, अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसकों में और अन्तरद्वीपों के मनुष्य नपुंसकों में कौन किससे अल्प, बहुत्व, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? " Jain Education International उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अन्तरद्वीपज मनुष्य नपुंसक, उनसे देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुणा इस प्रकार यावत् पूर्वविदेह पश्चिमविदेह के कर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुणा हैं। विवेचन- इस चौथे अल्प बहुत्व में मनुष्य के भेदों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है जो इस प्रकार है - सबसे थोड़े अन्तरद्वीपज मनुष्य नपुंसक सम्मूर्च्छिम जन्म वाले होते हैं क्योंकि गर्भज मनुष्य नपुसंकों की अंतरद्वीप में संभावना नहीं है। वहां जो गर्भज मनुष्य नपुंसक होते हैं वे कर्मभूमि से संहरण किये हुए ही संभव हैं क्योंकि वहां के जन्मे हुए मनुष्य नपुंसक नहीं हो सकते। उनसे देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक संख्यातगुणा अधिक हैं क्योंकि अंतरद्वीपज गर्भज मनुष्यों से देवकुरु उत्तरकुरु के गर्भज मनुष्य संख्यातगुणा हैं और गर्भज मनुष्यों के उच्चार आदि अशुचि स्थानों में मनुष्यों की उत्पत्ति होती है । स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक से हरिवर्ष रम्यकवर्ष अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक संख्यातगुणा और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उनसे हैमवत हैरण्यवत अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक संख्यातगुणा हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे भरत ऐरवत कर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक संख्यातगुणा हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे पूर्वविदेह पश्चिमविदेह कर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक संख्यातगुणा हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। इस प्रकार यह मनुष्य नपुंसक विषयक चौथा अल्पबहुत्व है। १७३ एएसि णं भंते! णेरड्यणपुंसगाणं रयणप्पभापुढविणेरइय णपुंसगाणं जाव असत्तमा पुढविणेरइय णपुंसगाणं तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं पुढविकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं जाव वणस्सइकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिय पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्स णपुंसगाणं कम्मभूमिगाणं अकम्मभूमिगाणं अंतरदीवगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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