________________
प्रथम प्रतिपत्ति - मनुष्यों का वर्णन
९५
HHHHHHHHHHHHHTHHATrainik
इस प्रकार दोनों पर्वतों की चारों विदिशाओं में छप्पन अंतरद्वीप हैं। प्रत्येक अंतरद्वीप चारों ओर पद्मवरवेदिका से शोभित है और पद्मवरवेदिका भी वनखंड से घिरी हुई है।
लवण समुद्र के भीतर होने से इनको अंतरद्वीप कहते हैं। इन अंतरद्वीपों में अन्तरद्वीप के नाम वाले ही युगलिक मनुष्य रहते हैं। जैसे कि एकोरुक द्वीप में रहने वाले मनुष्य को एकोरुक युगलिक मनुष्य कहते हैं। ये नाम संज्ञा मात्र है।
नोट - जीवाजीवाभिगम और पण्णवणा आदि सूत्रों की टीका में चुल्लहिमवान् और शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में चार-चार दाढाएं बतलाई गई हैं उन दाढाओं के ऊपर अंतरद्वीपों का होना बतलाया गया है किंतु यह बात सूत्र के मूल पाठ से मिलती नहीं है क्योंकि इन दोनों पर्वतों की जो लम्बाई आदि बतलाई गई है वह पर्वत की सीमा तक ही आई है। उसमें दाढाओं की लम्बाई आदि नहीं बतलाई गई है। यदि इन पर्वतों की दाढाएं होती तो उन पर्वतों की हद लवण समुद्र में भी बतलाई जाती। लवण समुद्र में भी दाढाओं का वर्णन नहीं है। इसी प्रकार भगवती सूत्र के मूल पाठ में तथा टीका में भी दाढाओं का वर्णन नहीं है। ये द्वीप विदिशाओं में टेढे टेढे आये हैं। इन टेढे टेढे शब्दों को बिगाड़ कर दाढाओं की कल्पना कर ली गई मालूम होती है। सूत्र का वर्णन देखने से दाढायें किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती है। भगवती सूत्र के दसवें शतक के सातवें उद्देशक से लेकर चौतीसवें उद्देशक तक २८ उद्देशकों में अट्ठाईस अन्तरद्वीपों का वर्णन आया है। उनके नाम आदि भी उपरोक्तानुसार ही हैं।
तेसिणं भंते! जीवाणं कइ सरीरा पण्णत्ता?
गोयमा! पंच सरीरया पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए जाव कम्मए। ... सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई छच्चेव संघयणा छस्संठाणा।
तेणं भंते! जीवा किं कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई? गोयमा! सव्वेवि। तेणं भंते! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता जाव णोसण्णोवउत्ता? गोयमा! सव्वेवि। तेणं भंते! जीवा किं कण्हलेसा जाव अलेसा? गोयमा! सव्वेवि।
सोइंदियोवउत्ता जाव णोइंदियोवउत्तावि, सव्वे समुग्घाया, तं जहा - वेयणासमुग्घाए जाव केवलिसमुग्याए, सण्णी विणोसण्णीणोअसण्णी वि, इत्थीवेयावि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org