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________________ ९४ जीवाजीवाभिगम सूत्र ३. अंतरद्वीपक (अंतरद्वीपज)- ऐसा नगर जो पानी के बीच में आया हो अर्थात् जिसके चारों तरफ पानी हो ऐसे नगर को अन्तरद्वीप कहते हैं। अंतरद्वीपों में रहने वाले मनुष्यों को अन्तरद्वीपक या अन्तरद्वीपज कहते हैं। ___ अंतरद्वीपक मनुष्य अट्ठाईस प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. एकोरुक २. आभासिक ३. वैषाणिक ४. नांगोलिक ५. हयकर्ण ६. गजकर्ण ७. गोकर्ण ८. शष्कुलि कर्ण ९. आदर्श मुख १०. मेण्ढक मुख ११. अयोमुख १२. गोमुख १३. अश्वमुख १४. हस्तिमुख १५. सिंहमुख १६. व्याघ्रमुख १७. अश्वकर्ण १८. सिंहकर्ण १९. अकर्ण २०. कर्ण प्रावरण २१. उल्कामुख २२. मेघमुख २३. विधुन्मुख २४. विद्युद्दन्त २५. घनदन्त २६. लष्टदन्त २७. गूढदन्त २८. शुद्धदन्त। प्रश्न- अट्ठाईस अंतरद्वीप के क्षेत्र कहां कहां हैं? उत्तर - जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला चुल्लहिमवान पर्वत है। वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवण समुद्र को स्पर्श करता है। उस पर्वत के पूर्व और पश्चिम के चरमान्त से चारों विदिशाओं (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य) में लवण समुद्र में तीन सौ-तीन सौ योजन जाने पर प्रत्येक विदिशा में एकोरुक आदि एक एक द्वीप आता है। वे द्वीप गोल हैं। उनकी लम्बाई चौड़ाई तीन सौ-तीन सौ योजन की है। परिधि प्रत्येक की ९४९ योजन से कुछ कम है। इन द्वीपों में चार सौ-चार सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर क्रमशः पांचवां, छठा, सातवां और आठवां द्वीप आते हैं उनकी लम्बाई चौड़ाई चार सौ-चार सौ योजन है। इसी प्रकार इन से आगे क्रमशः पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ, नौ सौ योजन जाने पर क्रमश: चार चार द्वीप आते जाते हैं। इनकी लम्बाई चौड़ाई पांच सौ से लेकर नव सौ योजन तक क्रमश: जाननी चाहिये। ये सभी गोल हैं। तिगुनी से कुछ अधिक परिधि है। इस प्रकार चुल्लहिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं। चुल्लहिमवान् पर्वत की तरह ही शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में निम्न नाम वाले सात सात अंतरद्वीप हैं - इंशान कोण आग्नेय कोण नैऋत्य कोण वायव्य कोण एकोरुक आभासिक वैषाणिक नाङ्गोलिक हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुली कर्ण आदर्श मुख मेण्ढ मुख अयोमुख गोमुख अश्वमुख हस्ति मुख व्याघ्रमुख अश्वकर्ण हरिकर्ण अकर्ण कर्णप्रावरण उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्युतदंत .. घनदंत लष्टदन्त गूढदन्त सिंहमुख Mmm". 39 शुद्धदंत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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