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________________ प्रथम प्रतिपत्ति - गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन ८७ १९. उपपात द्वार - गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय जीव पहली नरक से सातवीं नरक तक से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंचों को छोड़ कर सब तिर्यंचों से, अकर्मभूमिज, अंतरद्वीपज और असंख्यात वर्ष की आयु वालों को छोड़ कर सभी मनुष्यों से और सौधर्म से लगा कर सहस्रार, तक-आठ देवलोकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इससे आगे के देवलोकों से आकर देव गर्भज जलचर के रूप में उत्पन्न नहीं होते हैं। इस तरह गर्भज जलचर जीव चारों गतियों से आकर उत्पन्न होते हैं। २०. स्थिति द्वार - इन जीवों की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट पूर्व कोटि की होती है। २१. मरण द्वार - मारणांतिक समुद्घात से समवहत और असमवहत होकर मरते हैं। २२. उद्वर्तना द्वार - सहस्रार कल्प नामक आठवें देवलोक के आगे के देवों को छोड़ कर शेष चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। इसलिये ये चार गति वाले कहे गये हैं। २३. गति आगति द्वार - गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव चारों गतियों से आते हैं और चारों गतियों में जाते हैं। यह गर्भज़ जलचर जीवों का वर्णन हुआ। स्थलचर जीवों का वर्णन से किं तं थलयरा? थलयरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - चउप्पया य परिसप्पा य। से किं तं चउप्पया? चउप्पया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - एगखुरा सो चेव भेदो जाव जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता तं जहा - पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। भावार्थ - स्थलचर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? स्थलचर दो प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. चतुष्पद और २. परिसर्प। चतुष्पद कितने प्रकार के कहे गये हैं? . चतुष्पद चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा - एक खुर वाले आदि भेद प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार समझने चाहिये यावत् ये संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक। विवेचन - सम्मूर्छिम स्थलचर जीवों के समान गर्भज स्थलचर जीव भी दो प्रकार के कहे गये हैं - चतुष्पद और परिसर्प। जिनके चार पांव हों वे चतुष्पद कहलाते हैं जैसे - बैल, घोड़ा आदि। जो पेट के बल से या भुजाओं के सहारे चलते हैं वे परिसर्प कहलाते हैं। जैसे सर्प, नकुल आदि। चतुष्पद गर्भज स्थलचर जीव चार प्रकार के कहे गये हैं - १. एक खुर वाले २. दो खुर वाले ३. गंडीपद ४. सनखपद। इनके भेद प्रभेद प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार पूर्ववत् समझने चाहिये। ये पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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