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________________ ८८ जीवाजीवाभिगम सूत्र *** चत्तारि सरीरा ओगाहणा जहण्णेणं अंयुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाई, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं णवरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु चउत्थपुढविं ताव गच्छंति सेसं जहा जलयराणं जाव चउगइया चउआगइया परित्ता असंखिज्जा पण्णत्ता, से तं चउष्पया। भावार्थ - स्थलचर चतुष्पद जीवों के चार शरीर होते हैं। इन जीवों के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट छह गांऊ (कोस) की होती है। इनकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ये जीव मर कर चौथी नरक तक जाते हैं। शेष सारा वर्णन जलचरों की तरह समझना चाहिये यावत् ये चार गतियों में जाने वाले और चार गतियों से आने वाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। इस प्रकार चतुष्पदों का वर्णन हुआ। . विवेचन - चतुष्पदों के २३ द्वारों की प्ररूपणा जलचरों के समान ही है जिन द्वारों में अंतर है वे इस प्रकार हैं - - १. अवगाहना द्वार - चतुष्पदों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग उत्कृष्ट छह कोस की है। २. स्थिति द्वार - इनकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ३. उद्वर्तना द्वार - स्थलचर चतुष्पद जीव मर कर चौथी नरक से आगे नहीं जाते हैं शेष सारी वक्तव्यता जलचरों के समान है। ... से किं तं परिसप्पा? परिसप्पा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - उरपरिसप्पा य भुयंपरिसप्पा य। से किं तं उरपरिसप्पा? उरपरिसप्पा तहेव आसालिय वज्जो भेदो भाणियव्वो, सरीरा चत्तारि, ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी उव्वट्टित्ता णेरइएसु जाव पंचमं पुढविं ताव गच्छंति, तिरिक्ख मणुस्सेसु सव्वेसु, देवेसु जाव सहस्सारा सेसं जहा जलयराणं जाव चउगइया चउआगइया परित्ता असंखेज्जा से तं उरपरिसप्या। भावार्थ - परिसर्प कितने प्रकार के कहे गये हैं ? परिसर्प दो प्रकार के कहे गये हैं - उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प। उरपरिसर्प के कितने भेद कहे गये हैं? उरपरिसर्प के भेद पूर्ववत् (प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार) समझने चाहिये किंतु आसालिक नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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