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________________ ८६ जीवाजीवाभिगम सूत्र समवहत और असमवहत-दोनों प्रकार के मरण से मरते हैं। गर्भज जलचर जीव मरकर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों में, सभी मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोकों में जाते हैं। ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात हैं। यह जलचरों का वर्णन हुआ। विवेचन - गर्भज जलचर जीवों के २३ द्वारों का वर्णन इस प्रकार हैं - १. शरीर द्वार - गर्भज जलचरों में चार शरीर पाये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं - औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। २. अवगाहना द्वार - इनके शरीर की अवगाहंना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन परिमाण होती है। ३. संहनन द्वार - ये छहों प्रकार के संहनन वाले होते हैं। ४. संस्थान द्वार - गर्भज जलचर जीवों के छहों संस्थान होते हैं। ५. कषाय द्वार - इनमें चारों कषाएं-क्रोध, मान, माया, लोभ-होती हैं। ६. संज्ञा द्वार - इन जीवों के चारों संज्ञाएं होती हैं। ७. लेश्या द्वार - इन जीवों में छहों लेश्याएं होती हैं। ८. इन्द्रिय द्वार - इनके कान, आंख, नाक, रसना और स्पर्शन-ये पांचों इन्द्रियां होती हैं। ९. समुद्घात द्वार - इनके प्रारंभ के वेदना, कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तैजस, ये पांच समुद्घात होते हैं। १०. संज्ञी द्वार - ये संज्ञी ही होते हैं, असंज्ञी नहीं। ११. वेद द्वार - गर्भज जलचर जीव तीनों वेद वाले होते हैं। १२. पर्याप्ति द्वार - इनको छहों पर्याप्तियाँ होती है और छहों अपर्याप्तियाँ होती है। १३. दृष्टि द्वार - ये सम्य दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिश्र दृष्टि भी होते हैं। १४. दर्शन द्वार - इन जीवों में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन होते हैं। १५. ज्ञान द्वार - ये ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। इनमें कोई दो ज्ञान वाले (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान) और कोई तीन ज्ञान वाले (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान) होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं वे भी कितनेक दो अज्ञान (मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान) वाले और कितनेक तीन अज्ञान (मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान) वाले होते हैं। १६. योग द्वार-गर्भज जलचर तिर्यंचों को मनयोग, वचन योग और काययोग-ये तीनों योग होते हैं। १७. उपयोग द्वार - इन जीवों में दोनों प्रकार का उपयोग होता है। ये साकार उपयोग वाले भी होते हैं और अनाकार उपयोग वाले भी होते हैं। १८. आहार द्वार - गर्भज जलचर जीवों का आहार छह दिशाओं से आगत पुद्गलों का होता है क्योंकि ये जीव लोक के मध्य में ही होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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