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अध्ययन २
क्योंकि पूर्व केवलियों के द्वारा कहे हुए अर्थों की ही व्याख्या करने वाले उत्तर केवली होते हैं यह आर्हतों की मान्यता है । एक केवली ने जिस अर्थ को जैसा देखा है दूसरे भी उस अर्थ को उसी तरह देखते हैं इसलिए केवलियों के आगमों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है परन्तु अन्य तीर्थियों के आगमों में यह बात नहीं है । वे एक ही पदार्थ को भिन्न भिन्न दृष्टि से देखते हैं और भिन्न भिन्न रूपों से उसकी व्याख्या करते हैं ।
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सांख्यवादी असत् की उत्पत्ति न मान कर सत् का ही आविर्भाव मानता है और सत् का नाश न मान कर उसका तिरोभाव बतलाता है परन्तु नैयायिक और वैशेषिक ऐसा नहीं मानते। वे असत् की उत्पत्ति और सत् का नाश मानते हुए घट पट आदि कार्यसमूह को एकान्त, अनित्य और काल, आकाश, दिशा और आत्मा आदि को एकान्त नित्य कहते हैं। बौद्धगण निरन्वय क्षणभङ्गवाद को स्वीकार करके सभी पदार्थों को क्षणिक बतलाते हैं। इनके मत में पूर्व क्षण के घट के साथ उत्तर क्षण के घट का एकान्त भेद है और अन्वयी द्रव्य कोई है ही नहीं। इसी तरह मीमांसक और तापसों के शास्त्रों में भी पदार्थों की व्यवस्था भन्न भिन्न रीति से पाई जाती है। किसी के साथ किसी का मतैक्य नहीं है।
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वस्तुतः सभी पदार्थ उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त हैं तथा सभी कथञ्चित् नित्य और कर्थञ्चित् अनित्य हैं एवं कोई भी एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य नहीं हैं तथा कोई भी निरन्वय क्षणिक नहीं है तथापि महा मोह के उदय से अन्य तीर्थियों को उन उन भिन्न भिन्न रूपों में वे पदार्थ प्रतीत होते हैं । वस्तुतः समस्त कल्याणों की जननी स्वर्गापवर्गदात्री अहिंसा है परन्तु अन्यतीर्थी उसे प्रधान धर्म का अङ्ग नहीं मानते हैं । उन्हें समझाने के लिये शास्त्रकार एक कल्पित दृष्टान्त देकर अहिंसा की प्रधानता सिद्ध करते हैं । मान लीजिये कि किसी जगह सभी प्रावादुक एकत्रित होकर मण्डलाकार बैठे हों, वहां कोई सम्यग्दृष्टि पुरुष अग्नि के अंगारों से भरी हुई एक पात्री को संडासी से पकड़ कर लावे और कहे कि " हे प्रावादुको ! आप लोग अंगार से भरी हुई इस पात्री को अपने अपने हाथों में थोड़ी देर तक रखें । आप संडासी की सहायता न लें तथा एक दूसरे की सहायता भी न करें" यह सुनकर वे प्रावादुक उस पात्री को हाथ में लेने के लिए हाथ फैला कर भी उसे अङ्गारों से पूर्ण देखकर हाथ जल जाने के भय से अवश्य ही अपने हाथों को हटा लेंगे । उस समय वह सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि आप लोग अपने हाथ को क्यों हटा रहे हैं ? तो वे यही उत्तर देंगे कि हाथ जल जाने के भय से हम लोग हाथ हटा रहे हैं । फिर सम्यग्दृष्टि उनसे पूछे कि हाथ जल जाने से क्या होगा ? वे उत्तर देंगे कि दुःख होगा । उ समय सम्यग्दृष्टि उनसे यह कहे कि - " जैसे आप दुःख से भय करते हैं इसी तरह सभी प्राणी दुःख से डरते हैं । जैसे आपको दुःख अप्रिय और सुख प्रिय हैं इसी तरह दूसरे प्राणियों को भी दुःख अप्रिय और सुख प्रिय हैं। कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता है किन्तु सभी सुख के इच्छुक हैं इसलिए प्राणियों पर दया करना और उन्हें कष्ट न देना ही प्रधान धर्म का अङ्ग है । जो पुरुष सब प्राणियों को अपने
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