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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कध २ समान देखता हुआ अहिंसा का पालन करता है, वस्तुतः वही देखने वाला है । जहां अहिंसा है वही धर्म का निवास है । इस प्रकार अहिंसा धर्म का प्रधान अङ्ग है यह सिद्ध होने पर भी परमार्थ को न जानने वाले कई अज्ञानी श्रमण माहन हिंसा का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं कि- "देव यज्ञ आदि कार्यों में तथा धर्म के निमित्त प्राणियों का वध करना धर्म है, पाप नहीं है । श्राद्ध के समय रोहित मत्स्य का और देव यज्ञ में पशुओं का वध धर्म का अङ्ग है। इसी तरह किसी खास समय में प्राणियों को दासी दास आदि बनाना भी धर्म है" इत्यादि । इस प्रकार हिंसामय धर्म का उपदेश करने वाले अन्यदर्शनी महामोह में फँसे हैं वे अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करते रहेंगे। वे जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि दुःखों से कभी मुक्त नहीं होंगे। अतः विवेकी पुरुष को अहिंसा धर्म का आश्रय लेना चाहिये। जो पुरुष. तत्त्वदर्शी हैं वे अहिंसा धर्म का ही पालन करते हैं अहिंसा धर्म का ही और उपदेश देते हैं। वें किसी से वैर नहीं करते, किन्तु सभी पर दया करते हैं। उन महापुरुषों का इस जगत् में कोई भी शत्रु नहीं है। वे अपने इस पवित्र धर्म का पालन करके सदा के लिए सब दुःखों से रहित मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं । अत: अहिंसा ही प्रधान धर्म है यह जानकर उसी का आश्रय लेना चाहिये ।। ४१ ॥ ९० विवेचन - श्रमणोपासकों (श्रावक) के वर्णन में 'असहिज्जदेवा' इत्यादि शब्द आये हैं। जिनका अर्थ इस प्रकार है - जैसे प्रचण्ड वायु के द्वारा भी मेरु पर्वत चलित नहीं किया जा सकता है वैसे ही वे श्रमणोपासक भी देवों के द्वारा भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित नहीं किये जा सकते हैं। मनुष्यों की तो बात ही क्या ? आपत्ति आदि में भी वे देवों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते हैं। 'अणतिक्कमणिज्जा' का अर्थ है जैसे किसी सुशील व्यक्ति का गुरु अपने सिद्धान्त का अतिक्रमण नहीं करता वैसे ही अरिहन्तोपासक श्रावक भी शील सिद्धान्त या निर्ग्रन्थ प्रवचन का अतिक्रमण नहीं करते हैं। 'ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा' का अर्थ है अरिहन्तोपासक श्रावक इतने उदार होते हैं कि इनके घर पर आया हुआ कोई भी अतिथि, प्रार्थी, याचक खाली हाथ न जावे इस दृष्टि से दान देने के लिये. उनके दरवाजे सदा खुले रहते थे। किन्तु किंवाड़ के पीछे अर्गला (आगल) लगाकर बन्द नहीं किये जाते थे। इस उदारता के कारण आज भी जैनों के लिये "ओसवाल भूपाल" 'सेठ' (श्रेष्ठी) और 'महाजन' आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। "अट्ठिमिंजापेम्माणुरागरत्ता" का अर्थ है कि अरिहन्तोपासक श्रावक के हड्डी और हड्डी की मज्जा, निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुराग से अनुरक्त होती है। 'मज्जा' शब्द का अर्थ आयुर्वेद में इस प्रकार किया गया है रसाद् रक्तं ततो मांस, मांसात् मेदः प्रजायते । मेदस्यास्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र सम्भवः ॥ 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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