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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ तज्जणाणं, तालणाणं, अंदुबंधणाणं, जाव घोलणाणं, माइमरणाणं, पिइमरणाणं, भाइमरणाणं, भगिणीमरणाणं, भग्जा-पुत्त-धूया-सुण्हामरणाणं, दारिहाणं, दोहग्गाणं, अप्पिय-संवासाणं, पियविप्पओगाणं, बहूणं दुक्ख-दोम्मणस्साणं, आभागिणो भविस्सति । अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसारकंतारं भुजो भुज्जो अणुपरियट्टिस्संति । ते णो सिज्झिस्संति णो बुझिस्संति जाव णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति । एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे । तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परुति-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्या, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्या, ण परितावेयव्वाण किलामेयव्वा ण उद्दवेयव्वा । ते णो आगंतुछेयाए ते णो आगंतुभेयाए जाव जाइ-जरा-मरण-जोणि-जम्मण-संसार-पुणब्भव-गब्भवास भवपवंच-कलंकली भागिणो भविस्संति । ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्ख-दोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्संति । अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार-कंतारं भुज्जो भुज्जो णो अणुपरियट्टिस्संति, ते सिज्झि-स्संति जाव • सव्व-दुक्खाणं अंतं करिस्संति । ४१। ___कठिन शब्दार्थ - सागणियाणं - अग्नि सहित-जलते हुए, इंगालाणं - अंगारों का, पाई - पात्री-पात्र को, अयोमएणं - लोहे की, संडासएणं - संडासी से, अग्गियंभणियं - अग्नि का स्तंभन, आगंतुजाइजरामरण जोणिजम्मणसंसार पुणब्भव-गब्भवास भव पवंचकलंकली भागिणो - भविष्य में जन्म, जरा, मरण योनि जन्म, संसार, पुनर्भव, गर्भवास, भवप्रपंच में व्याकुल चित्त वाले, दारिहाणं - दरिद्रता दोहग्गाणं - दौर्भाग्य, अप्पिय-संवासाणं - अप्रिय संवास-अप्रिय के साथ निवास, पियविप्पओगाणं - प्रिय वियोग, दीहमद्धं - दीर्घ मार्ग वाले, चाउरंत संसारकंतार-चातुर्गतिक संसार रूपी कान्तार(अरण्य-जङ्गल)में। भावार्थ - जो लोग सर्वज्ञ के आगम को न मान कर किसी दूसरे मत के प्रवर्तक हैं वे अन्य तीर्थी या प्रावादुक कहलाते हैं । इनकी संख्या शास्त्रकार ने ३६३ बताई है । ये प्रावादुकगण अपने शास्त्रों के अतिरिक्त किसी दूसरे सर्वज्ञप्रणीत आगम का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं। इनका कहना है कि मैं ही पहले पहल जगत् को कल्याण का मार्ग बताने वाला हूँ । मेरे पहले कोई दूसरा पुरुष सत्पथ का प्रदर्शक नहीं था। अतएव यहां शास्त्रकार ने इन प्रावादुकों को अपने अपने मतों का आदिकर कह कर बताया है । आर्हत मत का कोई भी धर्मोपदेशक इनके समान धर्म का आदिकर नहीं कहा जा सकता हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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