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________________ अध्ययन २ ६३ होकर उसकी तथा उसके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, अश्वशाला तथा गर्दभशाला को काँट की शाखाओं से ढक कर उनमें स्वयं आग लगा देते हैं और दूसरे से भी आग लगवा देते हैं तथा आग लगाने वाले को अच्छा समझते हैं ऐसे पुरुष महापापी कहलाते हैं । से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणिं वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ अण्णेण वि अवहरावेइ, अवहरंतं वि अण्णं समणुजाणइ । इति से महया जाव भवइ । कठिन शब्दार्थ - अवहरइ - हरण करता है। - भावार्थ - इस जगत् में बहुत से पुरुष ऐसे होते हैं जो किसी कारणवश गाथापति के ऊपर क्रोधित हो कर उसके तथा उसके पुत्रों के कुण्डल, मणि और मोती को स्वयं हरण कर लेते हैं और दूसरे से भी हरण कराते हैं तथा हरण करते हुए को अच्छा मानते हैं ऐसे पुरुष महापापी हैं। से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्तगंवा दंडगं वा भंडगं वा मत्तगं लट्टिं वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मयं वा छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ । इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । कठिन शब्दार्थ - छत्तगं - छत्र, दंडगं - दंड का, भंडगं - भाण्ड, मत्तंगं - पात्र, लट्ठि - लाठी, भिसिगं - आसन, चेलगं - वस्त्र, चिलिमिलिगं - पर्दा, चम्मयं - चर्म, छयणगं - छेदनक, चम्मकोसियं - चर्म कोशिका का । भावार्थ - किसी पाखण्डी के ऊपर क्रोधित निर्विवेकी पुरुष उनके छत्र, दण्ड, भाण्ड, पात्र, लाठी, आसन आदि उपकरणों को स्वयं हरण करता है और दूसरे से भी हरण करवाता है तथा हरण करते हुए को अच्छा जानता है ऐसे पुरुष को महापापी जानना चाहिये। .. से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा-गाहावइण वा गाहावइ-पुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेइ जाव अण्णं पि झामंतं समणुजाणइ। इति से महया जाव उवक्खावइत्ता भवइ । कठिन शब्दार्थ-वितिगिंछइ - विमर्श (विचार) करता है। ___ भावार्थ - पूर्व सूत्रों में किसी कारण से क्रोधित होकर दूसरे का अपकार करने वाले पापियों का वर्णन किया है परन्तु यहां बिना कारण ही पाप करने वाले अधार्मिकों का वर्णन किया जाता है । कोई पुरुष इतना अधिक पापी होता है कि वह बिना कारण ही दूसरे का अपकार आदि पाप किया करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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