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________________ ६४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ वह पाप का जरा भी विचार नहीं करता है । दूसरे की बुराई करने में उसे बड़ा ही आनन्द आता है इसलिए वह अपने इस अधार्मिक स्वभाव के कारण गाथापति के धान्य आदि पदार्थों को आग लगाकर स्वयं जला देता है तथा दूसरे से भी ऐसा करवाता है और ऐसा करने वाले को वह अच्छा मानता है । जिसकी ऐसी प्रवृत्ति है वह पुरुष महापापी कहलाता है । से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गहभाण वा सयमेव घूराओ कप्पइ, अण्णेण वि कप्पावेइ, अण्णं पि कप्पंतं समणुजाणइ । ___ भावार्थ - कोई पुरुष बिना कारण ही गाथापति तथा उसके पुत्रों के ऊँट, गाय घोड़े और गदहे आदि जानवरों के अङ्गों को स्वयमेव छेदन करता है। दूसरों से करवाता है तथा छेदन करने वाले को वह अच्छा जानता है । यद्यपि इससे उसको कुछ लाभ नहीं है किन्तु व्यर्थ ही महापाप उसको होता है तथापि वह अत्यन्त मूढ प्राणी इस बात का विचार नहीं करता है उसे ऐसा करने में बड़ा आनन्द मालूम होता है इसमें उसकी पापमयी मनोवृत्ति ही कारण है। से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा-गाहावईण वा गाहावइ पुत्ताण वा उट्टसालाओ वा जाव गहभसालाओ वा कंटक-बोंदियाहिं परिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ जाव समणुजाणइ । भावार्थ - कोई पुरुष अपने कर्म फल का कुछ विचार नहीं करता और बिना ही कारण गाथापति तथा उसको पुत्रों की ऊंटशाला, घोडाशाला, गोशाला और गर्दभ शाला को कांटों की बाड से ढक कर स्वयमेव आग लगा कर जला देता है दूसरे से जलवा देता है तथा जलाते हुए को अच्छा जानता है । से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा गाहावईण वा गाहावइ पुत्ताण वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ। भावार्थ - कोई पुरुष अपने कर्म के फल को विचारता नहीं है वह गाथापति तथा उसके पुत्रों के मोती आदि आभूषणों को स्वयं हरण करता है तथा दूसरे से भी हरण करवाता है और हरण करते हुए को अच्छा जानता है। से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं जहा समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा जाव चम्म-छेदणगं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ । इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ । भावार्थ - जगत् में बहुत से पुरुष ऐसे होते हैं जो अपने कर्म के फल का विचार नहीं करते । वे बिना ही कारण दूसरे को कष्ट दिया करते हैं । ऐसे पुरुषों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि - कोई पुरुष बिना ही कारण श्रमण और माहनों के छत्र आदि उपकरणों को स्वयं हर लेते हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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