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________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ विवेचन - खलदान शब्द के स्थान में चूर्णिकार ने "खलकेदाणं खलभिक्खं" पाठ दिया है जिसका अर्थ किया गया है कि - खलिहान में आये हुए भिक्षुक को तुच्छ वस्तु की भिक्षा दी हो या कम दी हो या नहीं दी हो इस कारण वह कुपित हो जाता है। मूल पाठ में "सुराथालएणं" शब्द दिया है जिसका अर्थ चूर्णिकार ने किया है कि - थालगेण सुरा पिज्जति, तत्थ परिवाडीए आवेट्ठस्स वारो ण दिण्णो उट्ठवितो वा, तेण विरुद्धो । अर्थ - सुरापान करने के पात्र (प्याली) से सुरा (मदिरा) पी जा सकती है अतः मदिरा पान के समय पंक्ति में बैठे हुए उस व्यक्ति की सुरापान करने की बारी नहीं आने दी या उसे पंक्ति में से उठा दिया इस अपमान के कारण विरुद्ध होकर कुपित होना । ६२ टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है 'सुरायाः स्थालकं कोशकादि, तेन विवक्षितलाभाभावात् कुपितः ।' अर्थ- सुरापान करने का स्थालक - चषक ( प्याला) आदि पात्र। उससे अभीष्ट लाभ न होने से कुपित हुआ । से एगइओ केइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण गाहावइपुत्ताण वा उट्टाणं वा गोणाणं वा घोडगाणं वा गद्दभाणं वा सयमेव घूराओ कप्पेइ, अण्णेण वि कप्पावेइ, कप्पंतं वि अण्णं समणुजाण । इति से महया जाव भवइ । कठिन शब्दार्थ - उट्टाणं - ऊंट को, गोणाणं गौ को, घोडगाणं- घोड़ा को, गद्दभाणं - गंधों को घूराओ - अवयवों को, कप्पेड़ काटता है । भावार्थ - जगत् में कोई पुरुष ऐसे होते हैं जो किसी कारण से क्रोधित हो कर गाथापति के अथवा उसको पुत्रों के ऊँट गौ, घोडा और गधों के अंगों को स्वयं काटता है दूसरों से कटवाता है और काटते हुए को अच्छा जानता है, वह महापापी के नाम से अपने को प्रसिद्ध करता है । गइओ के आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा गोणसालाओ वा · घोडगसालाओ वा गद्दभसालाओ वा कंटक बोंदियाए परिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अण्णेण वि झामावेइ, झामंतं वि अण्णं समणुजाणइ । इति से महया जाव भवइ । ********************************* - Jain Education International कठिन शब्दार्थ - कंटकबोंदियाए - कांटों की बाड़ से, परिपेहित्ता ढंककर उट्टसालाओऊंटों के रखने के स्थान से । भावार्थ - जगत् में कोई पुरुष ऐसे होते हैं जो किसी गृहस्थ के ऊपर किसी कारण वश क्रोधित For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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