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अध्ययन १
"शरीर और भुवन (संसार), विशेष अवयव रचना से युक्त होने के कारण किसी बुद्धिमान् कर्ता के द्वारा किये हुए हैं" सो यह भी ईश्वर का साधक नहीं है क्योंकि इस अनुमान से बुद्धिमान् कर्ता की सिद्धि होती है, ईश्वर की सिद्धि नहीं होती है। जो बुद्धिमान् होता है वह ईश्वर ही होता है ऐसा नियम नहीं है अतएव घट का कर्ता कुम्हार और पट का कर्ता जुलाहा माना जाता है ईश्वर नहीं माना जाता है। यदि बुद्धिमान् कर्ता ईश्वर ही हो तो फिर ईश्वरवादी घट और पट का कर्ता भी ईश्वर को ही क्यों नहीं मानते?
तथा विशेष अवयव रचना भी बुद्धिमान् कर्ता के बिना नहीं होती है यह भी नियम नहीं है क्योंकि-घट पट के समान ही वल्मीक (उदई का ढेर) भी विशेष अवयव रचना से युक्त होता है परन्तु उसका कर्ता कुलाल (कुम्हार) आदि के समान कोई बुद्धिमान् पुरुष नहीं होता है अतः शरीर और संसार आदि की विशेष अवयव रचना को देखकर उससे अदृष्ट ईश्वर की कल्पना करना अयुक्त है । ।
इसी तरह आत्माद्वैतवाद भी युक्ति रहित है क्योंकि इस जगत् में जब एक आत्मा के सिवाय दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है तब फिर मोक्ष के लिये प्रयत्न करना, शास्त्र पढ़ना, इत्यादि बातें निरर्थक होंगी तथा ऐसा मानने पर जगत् की विचित्रता जो प्रत्यक्ष देखी जाती है वह भी सिद्ध नहीं हो सकती है किन्तु एक के पाप से दूसरा पापी और एक की मुक्ति से दूसरे की मुक्ति तथा एक के दुःख से दूसरे को दुःखी मानना पड़ेगा परन्तु यह आत्माद्वैतवादी को भी इष्ट नहीं है अतः युक्तिरहित आत्मा द्वैतवाद को सर्वथा मिथ्या जानना चाहिये।
उक्त रीति से ईश्वरकारणतावाद और आत्माद्वैतवाद यद्यपि मिथ्या हैं तथापि इनके अनुयायी इन मतों के फंदे से इस प्रकार मुक्तं नहीं होते जैसे पक्षी अपने पिंजड़े से मुक्त नहीं होता है । ये लोग अपने मतों का उपदेश देकर दूसरे को भी भ्रष्ट करते हैं और स्वयं भी भवसागर से पार नहीं होते । ये कहते हैं कि - .. ... "यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् ! - आकाशमिव पड्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ।"
अर्थात् जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती है वह यदि समस्त जगत् का घात करे तो भी वह पाप से इस प्रकार लिप्त नहीं होता है जैसे आकाश में कीचड़ नहीं लगता है । यह ईश्वर-कारणवादी कहा गया है । इसके आगे नियतिवादी का मत बताया जाता है ।। ११॥ . विवेचन - आत्माद्वैतवाद का स्वरूप इस सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में बता दिया गया है तथा ईश्वर कारणवाद का मन्तव्य इस सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के तीसरे उद्देशक में बता दिया गया है अतः विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए।
अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियइ-वाइए त्ति आहिज्जइ। इह खलु पाईणं वा ६ तहेव जाव सेणावइ-पुत्ता वा । तेसिं च णं एगइए सड्डी
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